Saturday, 18 May 2013

सूखी धरती प्यासे लोग


 महाराष्ट्र में प्रकृति ही नहीं जल कुप्रबंधन की देन भी है सूखा

म्मीदें आसमान पर टंगी हैं. शायद इस बार अच्छा और कुछ जल्दी मानसून आएगा और महाराष्ट्र के शुष्क क्षेत्र (रेन शैडो एरिया) कहे जाने वाले मराठवाड़ा एवं पश्चिम महाराष्ट्र के 15-16 जिलों में सूखी धरती, प्यासे लोगों और पशुओं की प्यास भी बुझाएगा. इसी तरह की उम्मीद साल भर पहले भी लगाई गयी थी. लेकिन साल दर साल इन इलाकों से रूठे रहने वाले बरसाती बादलों ने निराश ही किया था. मराठवाडा में आमतौर पर साल भर में औसतन 600-700 मिली मीटर (राष्ट्रीय औसत से बहुत कम) पानी बरसता है लेकिन पिछले साल और उससे एक साल पहले भी इस इलाके में इससे आधी मात्रा में ही पानी बरसा था. नतीजतन, तकरीबन 12 हजार गांवों में दो करोड़ लोग भयंकर सूखे और अकाल का सामना कर रहे हैं. जानकार बताते हैं कि सूखा तो इन इलाकों में प्रायः हर साल ही पड़ता है लेकिन इस साल यहां सूखे ने पिछले चार दशकों का रिकार्ड तोड़ दिया है. इस तरह का सूखा इससे पहले यहां 1972 में पड़ा था. इस बार खासतौर से मराठवाडा के बीड़, जालना, उस्मानाबाद, नांदेड़ और लातूर के साथ ही पश्चिम महाराष्ट्र के अहमदनगर, सोलापुर, सातारा और सांगली जिलों में भी पीने के पानी का भारी संकट खड़ा हो गया है. नदी, नाले और कुंए भी सूखे पड़े हैं, भूजलस्तर 1500-1600 फुट नीचे तक पहुंच गया है. सूखे खेतों की जमीन फट गई है. पानी की जरूरत पूरी करने के लिए ग्रामीण इलाकों में किसान 1500 फुट नीचे तक बोरवेल लगाकर पानी खींच रहे हैं जबक वैधानिक रूप से 300 फुट से नीचे बोरवेल नहीं लगाए जा सकते. लोगों ने करोड़ों रु. इन बोरवेल्स पर खर्च किए हैं जबकि पिछले दिनों सरकार ने इन पर प्रतिबंध भी लगा दिया है.

 इन इलाकों में सूखे और अकाल की आहट पिछले साल सितंबर महीने में ही मिल गई थी लेकिन कागजी वायदों-आश्वासनों और बयानबाजियों के अलावा स्थिति से निबटने के पुख्ता इंतजाम नहीं के बराबर ही किए गए. पानी के लिए हाहाकार मचा है. हालात दिन ब दिन बिगड़ते जा रहे हैं. आसमान से आग के गोले बरस रहे हैं. और अभी तो मई और जून के तपिश भरे दिन काटने हैं. खेत-खलिहान सूखे और खाली पड़े हैं. पेड़-पौधे सूखे और मुरझा गए हैं. लोग पानी और रोजगार की तलाश में  महाराष्ट्र के मुंबई-पुणे एवं पड़ोसी राज्यों के शहरी इलाकों की ओर पलायन करने लगे हैं. मवेशी चारा-पानी की तलाश में दर दर भटक-मर रहे हैं. चारा पानी मुहैया करा पाने में असमर्थ किसान अपने मवेशियों को औने-पौने दामों में बेचने को विवश  हो रहे हैं या फिर यूं ही छुट्टा छोड़ दे रहे हैं.

 महाराष्ट्र में मानसून आमतौर पर जून महीने के तीसरे सप्ताह में ही आता है. आने वाले दिनों में अगर यथोचित इंतजाम नहीं किए गए तो भूख और प्यास के मारे मनुष्य और मवेशियों की मौत का निर्लज्ज नृत्य यहां देखने को मिल सकता है. सरकार ने मवेशियों के लिए जगह-जगह पशु आश्रय स्थल बनाए हैं जहां चारे और पानी का इंतजाम टैंकरों से किया जा रहा है. शहरी इलाकों में सरकारी नलकों से पानी की आपूर्ति कई-कई दिनों के अंतराल पर की जा रही है.प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि गांवों में बचे खुचे लोगों का आधा समय पानी के टैंकरों के इंतजार में ही बीतता है. टैंकर आने की भनक मिलते ही लोग उस दिशा में भागने लग जाते हैं. इन इलाकों में तकरीबन 2500 टैंकरों के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है. इसके चलते इन इलाकों में एक तरह का टैंकर माफिया भी सक्रिय हो गया है. इसमें नेता, नौकरशाह और ठेकेदार शामिल हैं. जालना में सरकार ने टैंकरों से पानी की आपूर्ति के लिए 40 करोड़ रु. जारी किए हैं लेकिन सरकारी टैंकरों से निःशुल्क पानी की आपूर्ति वहां नहीं के बराबर दिख रही है. वहीं पांच रु. में एक घड़ा तथा 300 से 400 रु. में 500 लीटर का एक टैंकर मिल जा रहा है. इसी तरह से उस्मानाबाद में सरकारी नलके से दो घंटे के लिए पानी की आपूर्ति 21 दिनों के अंतराल पर हो पा रही है. पानी 30 किमी दूरी से टैंकरों से लाया और औने पौने दामों पर बेचा जा रहा है. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने कहा है कि आवश्यकता पड़ने पर रेल गाड़ियों से भी पानी पहुंचाया जाएगा. हालांकि पानी आएगा कहां से इसके बारे में कोई भी आश्वस्त नहीं है क्योंकि आस पास के तमाम जलाशय सूख से गए हैं. उनमें बहुत कम पानी बचा है.

वाल एक ही है कि जब  महाराष्ट्र के एक तिहाई इलाकों में हर साल पानी अपेक्षा से कम बरसता है, लोग सूखे और अकाल का सामना करने के लिए साल दर साल अभिशप्त रहते हैं तो फिर हमारी सरकारों ने इस स्थिति से निबटने के स्थाई और ठोस उपाय क्यों नहीं किये ? किये थे. 1999 से लेकर 2009 तक राज्य सरकार ने बड़े बांधों एवं बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के नाम पर 70 हजार करोड़ रु. से अधिक रकम खर्च की. इसके अलावा इन्हीं परियोजनाओं के नाम पर सरकार के ऊपर निजी ठेकेदारों के एक लाख करोड़ रु. का बकाया भी चढ़ गया. लेकिन नतीजे के तौर पर राज्य में सिंचाई क्षमताओं में महज .01 प्रतिशत का ही इजाफा हो सका. जाहिर सी बात है कि इतनी बड़ी, एक लाख 70 हजार करोड़ रु. की रकम कागजों में ही खर्च होकर हमारे नेताओं-मंत्रियों, नौकरशाहों और ठेकदारों की एन केन प्रकारेण धन कमाने की प्यास बुझाने में ही खर्च हो गई. इस सिंचाई घोटाले के मद्देनजर राज्य के तत्कालीन सिंचाई मंत्री अजित पवार को सरकार से त्यागपत्र भी देना पड़ा था लेकिन बलिहारी गठबंधन राजनीति की, कुछ ही समय बाद वह ससम्मान सरकार में वापस आ गए. इन्हीं अजित पवार साहब ने कुछ दिनों पहले पानी की मांग कर रहे लोगों के बीच कहा था, "कि जलाशयों में पानी है ही नहीं तो क्या मैं पेशाब करके जलाशयों को भरूं." बाद में भारी जन विरोध और हर तरफ थू थू होने पर उन्होंने इसके लिए दिखावे के तौर पर सही, प्रायश्चित भी किया.

च तो यह है कि  महाराष्ट्र के इन इलाकों में सूखे और अकाल की स्थिति केवल प्राकृतिक कारणों से ही नहीं बनी है. मुख्यमंत्री चह्वाण की लाचारगी समझाी जा सकती है कि पानी का उत्पादन नहीं किया जा सकता. लेकिन जितना पानी उपलब्ध है उसका कुशल प्रबंधन तो किया ही जा सकता है. पर्यावरणविद बताते हैं कि मराठवाडा क्षेत्र में 1972 के मुकाबले पिछले साल पानी कम नहीं, कुछ ज्यादा ही बरसा था. लेकिन उसका इस्तेमाल लोगों की प्यास बुझाने का इंतजाम करने से अधिक, अगल-बगल के इलाकों में चल रहे शक्कर कारखानों, औद्योगिक इकाइयों, पन बिजली परियोजनाओं के साथ ही ज्यादा पानी सोखने वाले गन्ने के खेतों, अंगूर और अनार के बागानों को सींचने के लिए किया गया. महाराष्ट्र देश में शक्कर और अंगूर की शराब का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है. पर्यावरणविद वंदना शिवा आंकड़ों की जबानी बताती हैं कि 1972 में जहां राज्य में कुल एक लाख 67 हजार हेक्टेयर रकबे में गन्ने की खेती हुई थी, वहीं 2011-12 में गन्ने की खेती का रकबा दस गुना बढ़कर दस लाख 22 हजार हेक्टेयर हो गया. जाहिर सी बात है कि एक तरफ तो अनावृष्टि के कारण इन इलाकों में पानी की कमी होती गई, दूसरी तरफ, पानी ज्यादा सोखने वाली फसलों का रकबा बढ़ता गया. यह बात और है कि सरकारी नीति के अनुसार सिंचित भूमि के पांच फीसदी से अधिक रकबे में गन्ने की खेती नहीं हो सकती लेकिन सजग नागरिक मंच नामक स्वयंसेवी संगठन द्वारा सूचना अधिकार कानून के तहत जुटाई गई सूचना के मुताबिक अकेले पुणे जिले में कुल सिंचित भूमि के 40 फीसदी रकबे में गन्ने की खेती की जा रही है. सच तो यह है कि राज्य में कुल चीनी उत्पादन का 65 फीसदी अकेले इन सूखा ग्रस्त इलाकों से ही होता है. हालत यह है कि संकट के इन दिनों में भी टैंकरों से एवं  जलाशयों से भी बचे खुचे पानी की चोरी छिपे आपूर्ति समृद्ध एवं प्रभावशाली किसानों के खेतों और उद्योगों के लिए भी की जा रही है. यह जानना मजेदार होगा कि राज्य सरकार में दर्जन भर मंत्री ऐसे हैं जिनके अपने शक्कर कारखाने हैं या फिर शक्कर कारखानों में उनकी बड़ी हिस्सेदारी है.  

न इलाकों में और खासतौर से पश्चिमी  महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में औद्योगीकरण तेजी से बढ़ा है. हरे-भरे जंगलों और खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल और उद्योग खड़े होते गए. नतीजतन बरसात के पानी के भूजल के रूप में संचय की मात्रा भी घटती गई. सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य में 600-700 मिली मीटर सालाना बरसात का महज 60-70 मिली मीटर पानी ही भूजल के रूप में संरक्षित हो पा रहा है. बाकी पानी या तो सूर्य की तपिश के कारण वाष्पीकृत हो जाता है या फिर पन बिजली परियोजनाओं के जरिए समुद्र में चला जाता है. एक प्रस्ताव कुछ समय के लिए पन बिजली परियोजनाओं को जलापूर्ति नहीं किए जाने का भी आया था लेकिन सरकार ने यह कह कर उसे खारिज कर दिया कि राज्य को बिजली की जरूरत भी उसी शिद्दत से है जितनी पानी की. यही बात उद्योगपति भी कहते हैं. मसलन सूखाग्रस्त जालना में जितने पानी की जरूरत पूरे शहर को होती है, उतना पानी अकेले वहां चल रहे इस्पात कारखाने पी जाते हैं लेकिन 'इंडस्ट्रियल एंटरप्रेन्योर एसोसिएशन आफ जालना' के अध्यक्ष किशोर अग्रवाल कहते हैं कि पानी के अभाव में इन इस्पात कारखानों के बंद हो जाने के कारण उनमें लगे 50 हजार से अधिक लोग बेरोजगार हो जाएंगे. वे लोग 50 किमी दूर से दस गुना दाम देकर टैंकरों में पानी मंगा रहे हैं ताकि कारखाने चलते रहें और उनमें काम करने वाले बेरोजगार ना हो सकें!

 महाराष्ट्र के इन सूखाग्रस्त इलाकों में राहत के नाम पर राजनीति भी कम नहीं हो रही है. कांग्रेस, उसकी सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, भाजपा, शिवसेना और  महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के तमाम बड़े नेता सूखाग्रस्त इलाकों में दौरे कर शुष्क आश्वासनों एवं लच्छेदार भाषणों के जरिए प्यासी जनता का समर्थन जुटाने में जुटे हैं. केंद्र और राज्य सरकार से पानी की आपूर्ति और राहत के नाम पर करोड़ों रु. के पैकेज भी आ रहे हैं. राज्य सरकार ने केंद्र से 2500 करोड़ रु. का पैकेज मांगा था केंद्र ने 780 करोड़ रु. जारी किये थे. पिछले 13 मार्च को भी केंद्र सरकार ने 1200 करोड़ रु. का पैकेज जारी किया. राष्ट्रीय आपदा राहत फंड से भी 807 करोड़ रु. जारी किए गए हैं. सच है कि वहां पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे हैं. लेकिन यह सच कुछ ज्यादा कड़वा लग सकता है कि जिन लोगों के लिए ये पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे हैं उन मनुष्य और मवेशियों की प्यास नहीं बुझ पा रही है. उनके हलक सूख रहे हैं. समय रहते उनकी प्यास नहीं बुझाई गई तो उन इलाकों में कानून व्यवस्था की गंभीर समस्या पैदा हो सकती है जो इस बात का संकेत भी होगी कि जल संरक्षण और जल प्रबंधन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा.

(साप्ताहिक उदय इंडिया में प्रकाशित)

jaishankargupta@gmail.com

Sunday, 7 April 2013

मेरे लिए सभी भारतीय भाषाएं समान हैं-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से बातचीत के क्षण


हिंदी के वरिष्ठ कवि, लेखक और आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को पिछले दिनों साहित्य अकादमी का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया. यह महज एक संयोग भी हो सकता है कि भारतीय साहित्य की इस सर्वाधिक सम्मानित एवं प्रतीष्ठित अकादमी का अध्यक्ष चुने जाने वाले हिंदी के वह पहले लेखक हैं. इससे पहले वह अकादमी के पहले हिंदी भाषी उपाध्यक्ष भी रहे. पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के एक गांव में पैदा हुए 73 वर्षीय श्री तिवारी अध्यापन से भी जुड़े रहे हैं. 2001 में  गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफसर-विभागाध्यक्ष के रूप में सेवानिवृत्त हुए तिवारी के पांच कविता संकलन, दस आलोचना पुस्तकें और तीन यात्रा वृतांत प्रकाशित हो चुके हैं. एक दर्जन पुस्तकों का उन्होंने संपादन किया है. 1980 से वह हिंदी की प्रतीष्ठित त्रयमासिक पत्रिका ‘दस्तावेज’ का संपादन-प्रकाशन कर रहे हैं. उन्हें के. के. बिरला फाउंडेशन का सम्मानित ‘व्यास सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य गौरव और साहित्य भूषण सम्मान प्राप्त हो चुका है. पिछले 16 मार्च को उन्हें यहां दिल्ली में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वर्धा के अमृत महोत्सव में सम्मानित किया गया. इस अवसर पर श्री तिवारी से जयशंकर गुप्त की लंबी बातचीत के अंश:

पहले हिंदी भाषी लेखक-साहित्यकार के रूप में साहित्य अकादमी का निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाने के बारे में कुछ कहेंगे?

साहित्य अकादमी इस देश में साहित्य की सर्वोच्च संस्था है. इसमें अघ्यक्ष के रूप में किसी लेखक का निर्विरोध चुना जाना बहुत संतोष देनेवाली घटना है. मैं भी प्रसन्नता से कुछ अधिक संतोष महसूस कर रहा हूं. भारत में बहुत सारी भाषाएं हैं और हर भाषा में बहुत ही योग्य और प्रतिष्ठित लेखक-साहित्यकार हैं. अब तक जो लेखक-साहित्यकार इस पद पर यहां चुने गए हैं, नि:संदेह वे बड़े कद के लेखक थे. उन सबके प्रति मेरे मन में बड़ा सम्मानभाव है.

अकादमी की चुनाव प्रक्रिया क्या है?

से समय में जबकि देश में साहित्य की तमाम संस्थाओं, अकादमियों पर निष्क्रियता के आरोप लगते हैं. साहित्य अकादमी अपनी स्वायत्त सक्रियता बनाए हुए है. इसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभी भाषाओं के संयोजक मतदान द्वारा चुने जाते हैं. मतदान करने वाले भी लेखक ही होते हैं. अकादमी की स्थापना देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने की थी. दस वर्षों (मृत्यु पर्यंत) तक वे स्वयं इसके संस्थापक अध्यक्ष रहे. उनके निर्देशन में अकादमी का संविधान और सारा ढांचा लोकतांत्रिक पद्धति पर बना है. मुझे प्रसन्नता है कि अकादमी अभी तक उस लोकतांत्रिक ढांचे को बनाए हुए है. इसके क्रियाकलापों में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है.

50 करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली हिंदी का कोई लेखक-साहित्यकार अभी तक अकादमी का अध्यक्ष नहीं चुना जा सका, इसे आप किस रूप में देखते हैं.

कादमी के साथ मैं पिछले पांच साल से जुड़ा हूं. पहले हिंदी की समिति के संयोजक के रूप में और फिर किसी पहले हिंदी भाषी लेखक के रूप में इसके निर्विरोध निर्वाचित उपाध्यक्ष के रूप में भी मैंने यहां काम किया. उस दौरान मैंने सभी भारतीय भाषाओं को बराबरी की निगाह से देखा और सबका पक्ष लिया. अब मैं खुद से तो नहीं कह सकता कि सबके साथ मेरा व्यक्तिगत व्यवहार अच्छा था, लेकिन एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि अहंकार हमेशा नुकसानदेह होता है. हिंदी के लेखक-साहित्यकार कई बार इस भ्रम के शिकार होते हैं कि उन्हें सब जानते हैं. सच तो यह है कि देश की दूसरी भाषाओं के लेखक हमारे बड़े से बड़े लेखकों के नाम भी नहीं जानते. वे केवल व्यवहार जानते हैं.

आपके नेतृत्व में अकादमी नया क्या करने जा रही है. अध्यक्ष के रूप में अकादमी और भारतीय साहित्य के सामने मुख्य चुनौतियां क्या नजर आ रही हैं?

साहित्य अकादमी के मुख्य रूप से तीन काम हैं. एक तो पूरे देश में साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन, देश की 24 भाषाओं में महत्वपूर्ण कृतियों के प्रकाशन और उनके परस्पर अनुवाद कराना और इन भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को पुरस्कृत करना.इन तीनों क्षेत्रों में अकादमी बहुत अच्छा काम कर रही है. छिटपुट विरोध तो होते हैं मगर उन्हें नगण्य समझना चाहिए. अकादमी के पुरस्कारों की प्रतिष्ठा हमेशा से सर्वोपरि रही है. इसी प्रकार इसके कार्यक्रम भी बहुत प्रतीष्ठित माने जाते हैं. मैं कोशिश करूंगा कि इन सभी क्षेत्रों में अकादमी को कुछ और अधिक सक्रिय करूं तथा अनुवाद के मामले में और तेजी लाऊं.

साहित्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि इसके पाठकों की संख्या घट रही है. हमारी नई पीढ़ी मेडिकल और प्रौद्योगिकी शिक्षा की ओर तेजी से आकर्षित हो रही है. प्रतिभावान बच्चे अपने करियर के लिए चिंतित हैं. बहुत से प्रांतों में साहित्य के पठन-पाठन का सिलसिला कम होते जा रहा है. साहित्य अकादमी इस वातावरण में बहुत कुछ ज्यादा तो नहीं कर सकती लेकिन हमें इस चुनौती को सामने रखकर काम करना है.

मराठी और कोंकणी को लेकर भी क्या कुछ कार्य योजना है आपके पास?

राठी और कोंकणी, दोनों भाषाएं अकादमी द्वारा स्वीकृत हैं. इनके अलग अलग सलाहकार मंडल हैं जो अपनी अपनी भाषाओं में जरूरत के मुताबिक काम करते रहते हैं. इन दोनों भाषाओं में अन्य शेष भाषाओं के समान ही गतिविधियां संचालित होती रहती हैं. मराठी और कोंकणी ही क्यों अकादमी के लिए सारी भाषाएं समान हैं.


 साहित्य अकादमी के पुरस्कार महत्वपूर्ण होने के साथ ही हाल के वर्षों में विवाद का केंद्र भी बनते रहे हैं. कई बार वरिष्ठ लोगों को लगता है कि उन्हें बहुत पहले ही पुरस्कृत किया जाना चाहिए था. अभी चंद्रकांत देवताले जी ने भी कुछ इसी तरह की बातें कही थी. उन्हें 76 साल की उम्र पूरी करने के बाद पुरस्कार मिला!

अकादमी के पुरस्कारों के लिए तीन वर्षों की एक समय सीमा होती है. इस समय सीमा के भीतर प्रकाशित पुस्तकों पर ही विचार किया जाता है. कभी कभी ऐसा होता है कि किसी लेखक की कुछ अच्छी कृतियां इस समय सीमा के अंतर्गत नहीं आ पातीं. दूसरी बात यह है कि कुछ भाषाओं में लेखकों की संख्या अधिक है और पुरस्कार कम. इसलिए कभी कभार विवाद स्वाभााविक हैं. मैं किसी का नाम नहीं लूंगा लेकिन इतना कहूंगा कि कभी-कभी कम उम्र के लेखकों को पहले पुरस्कार मिल जाते हैं और वरिष्ठ-बुजुर्ग लोगों को बहुत बाद में. अकादमी के पुरस्कारों का निर्णय विभिन्न चयन समितियों से होता हुआ अंत में इसके ज्यूरी (निर्णायक) मंडल द्वारा किया जाता है. अत: ऐसी घटनाएं भी स्वाभाविक ही कहे जाएंगी.

यह सच है कि अकादमी के पुरस्कार हर भाषा के लोगों को समान रूप से दिए जाते हैं. हिंदी भाषी लोगों की आबादी और क्षेत्रफल के मद्देनजर भी इसके लिए पुरस्कारों की संख्या बढ़ाने की मांग होती रही है. आप क्या कहेंगे?

ह प्रश्न लगभग सभी लोग पूछते रहते हैं. और यह महत्वपूर्ण भी है लेकिन इसमें साहित्य अकादमी कोई निर्णय नहीं ले सकती क्योंकि इसके लिए सभी भाषाएं एक समान हैं. और सभी के लिए एक एक पुरस्कार ही दिए जाते हैं.

कविता-कहानी को लेकर भी विवाद उठते रहे हैं. कहानी पर कविता को वरीयता दिए जाने के आरोप भी लगते रहे हैं. और फिर कविता-कहानी के परे भी भारतीय साहित्य में इन दिनों बहुत कुछ हो रहा है. इन पर अकादमी की निगाह कम ही जाती है.

कादमी के पुरस्कारों में किसी खास विधा का ध्यान नहीं रखा जाता. सभी विधाओं की पुस्तकों को एक साथ रखकर निर्णय लिए जाते हैं. अकादमी के पुरस्कार कृतियों की गुणवत्ता के आधार पर तय किए जाते हैं, विधा के आधार पर नहीं.

युवा लेखक-साहित्यकारों के बारे में क्या सोचते हैं?

कादमी ने सामान्य पुरस्कारों के साथ ही तीन और पुरस्कार-अनुवाद पुरस्कार, बाल साहित्यकार और युवा पुरस्कार देने शुरू किए हैं. युवा पुरस्कार 35 वर्ष से कम उम्र के रचनाकारों-साहित्यकारों को दिया जाता है. ये पुरस्कार सभी भाषाओं में दिए जाते हैं. अकादमी युवा साहित्यकारों और बाल साहित्य लेखकों की अलग संगोष्ठियां भी आयोजित करती है.

आपने साहित्य के पाठकों की संख्या घटने का जिक्र किया, यह भी तो कहा जा सकता है कि साहित्य आम पाठकों से दूर हो रहा है. अकादमी की पुस्तकें भी तो पाठकों की पहुंच से दूर होती होती जा रही हैं.

कादमी की पुस्तकें गुणवत्ता की दृष्टि से स्तरीय हैं और उनकी तुलना में सस्ती भी हैं. उनकी सालाना बिक्री भी करोड़ों रु. की हो जाती है. लेकिन आपका कहना सही है, हमें देश के सुदूर स्थानों तक अकादमी की पुस्तकें बिक्री के लिए सुलभ कराना चाहिए. इस दिशा में हम कुछ करने की सोच रहे हैं.

24 भाषाओं का संगठन होने के नाते अकादमी देश की समस्त भाषाओं के बीच समन्वय सेतु का काम कर सकती है. हिंदी के लोगों को पता नहीं होता कि मराठी और उड़िया में क्या लिखा-पढ़ा जा रहा है. इसी तरह मराठी और असमिया के पाठक नहीं जान पाते कि देश के अन्य हिस्सों-भाषाओँ  में किस तरह का साहित्य लिखा -पढ़ा जा रहा है. क्या यह संभव है कि अकादमी परस्पर अनुवाद की बेहतर व्यवस्था करवा सके और देशवासियों को बता सके  कि किस भाषा में क्या लिखा जा रहा है?

कादमी सभी भाषाओं की पुरस्कृत कृतियों के अनुवाद करवाती है. हमारी कोशिश होगी कि जिन कृतियों को पुरस्कार नहीं भी मिला है, उनमें से महत्वपूर्ण कृतियों का चयन करके उनके अनुवाद की व्यवस्था भी कराई जाए. वैसे, आपको बता दूं कि 24 भाषाओं में अनुवाद का सबसे अधिक काम साहित्य अकादमी ही करवाती है. प्रचार प्रसार पर भी ध्यान केंद्रित कर ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिससे लोग जान सकें कि इतर भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है.

भारतीय साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय पहिचान बनाने के लिए भी क्या कुछ संभव है? 

क बात कहना चाहूंगा कि दुनिया के जो नामचीन लेखक हैं उनके मुकाबले हमारी भारतीय भाषाओं के लेखक कम नहीं हैं. लेकिन हम अपने लेखकों को अंतरार्षट्रीय स्तर पर ठीक से प्रोजेक्ट नहीं कर पाते. यह काम बड़े पैमाने पर अनुवाद से ही संभव है. अनुवाद कुछ हुए भी हैं लेकिन हम उनकी मार्केटिंग और वितरण के मामले में काफी पीछे हैं. हम इस दिशा में कुछ प्रकाशकों और विश्वस्तरीय एजेंसियों को शामिल कर भारतीय साहित्य की श्रेष्ठ समकालीन रचनाओं को दुनिया के सामने लाना चाहते हैं. लार्ड मैकाले ने भारतीय भाषाओं को ‘वर्नाक्युलर’ कहते हुए अपमानजनक टिप्पणी की थाी कि भारत की भाषाओं में लिखे साहित्य की जगह अलमारी के एक शेल्फ के बराबर भी नहीं है. हम बताना चाहते हैं कि हमारा साहित्य इतना ज्यादा और समृद्ध है कि उनका पूरा घर छोटा पड़ जाएगा. यह तो भला हो विलियम जोंस का कि उन्होंने ‘शाकुंतलम’ का अनुवाद किया और तब यूरोप को पता चला कि हजारों वर्ष पहले भारत में ऐसा नाटक भी लिखा गया था. उसके बाद भारत की क्लासिक और कालजयी रचनाओं के अनुवाद हुए और विश्व स्तर पर उन्हें सराहना भी मिली. अब आधुनिक और समकालीन रचनाओं के अनुवाद के माध्यम से दुनिया के सामने लाने का काम भारतीय लेखकों को करना होगा. तभी दुनिया को पता चल सकेगा कि हिंदी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम, बांग्ला एवं अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी महान साहित्य का श्रृजन हो रहा है.

मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में लेखक-साहित्यकार एवं बुद्धिजीवियों की भूमिका आप किस रूप में देखते हैं? 

र्तमान समय भौतिक और उपभोगवादी समय है. इस समय में राजनीति एक प्रबल शक्ति के रूप में समाज पर हावी है. साहित्य का संबंध सत्ता से नहीं बल्कि मूल्यों से है. ऐसे में लेखकों और बुद्धिजीवियों का सबसे बड़ा दायित्व तो यही है कि वे श्रेष्ठ रचनात्मक लेखन करें और बौद्धिक विमर्श के जरिए एक सकारात्मक वातावरण तैयार करें. लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य की शक्तियों आज उतनी प्रभावशाली नहीं रह गई हैं जितनी राजनीति और अर्थ की हैं. इसी के साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रौद्योगिकी आदि भी एक ऐसे माध्यम के रूप में उभरे हैं कि जो साहित्य के प्रभाव को थोड़ा प्रभावित कर रहे हैं. किताब पढ़ने के बजाय हम टी वी देखने बैठ जाते हैं.

सन्नाटा साहित्य में है अथवा समाज में?

कुछ भाषाओं के समाज ऐसे हैं जिनमें साहित्यिक दिलचस्पी पर्याप्त है. जैसे बांग्ला, मराठी, मलयालम, उड़िया इत्यादि. हिंदी प्रदेशों में साहित्यिक दृष्टि से अजीब तरह का सन्नाटा है. इसे तोड़ने की जरूरत है.

 इन दिनों आप क्या कुछ लिख-पढ़ रहे हैं?

न दिनों मैं लगभग 50 वर्षों से लिखी गई अपनी डायरियों पर काम कर रहा हूं. उनमें आत्मकथा के भी तत्व इतने हैं कि एक मुकम्मल आत्मकथा बन सकती है. यह काम दो तीन महीनों में पूरा होने वाला है. कविताएं भी लिखी हैं. हाल में पिछला संकलन आया था जिस पर मुझे के. के. बिड़ला फाउंडेशन का सम्मानित ‘व्यास सम्मान’ मिला था. अब अगला संकलन एक दो साल बाद ही आएगा.
पढ़ने में जो भी महत्वपूर्ण कृतियां हमारे समय में लिखी जा रही हैं, उन सबको पढ़ने-देखने की कोशिश करता हूं. पढ़ना हमारे लिए एक व्यसन की तरह से है. इसलिए उन्हें पढ़े बिना रहा नहीं जाता.

लोकमत के पाठकों के लिए अपनी कोई पसंदीदा कविता देना चाहेंगे?

एक पुरानी कविता ‘कलम’ शायद सामयिक लगे.

कलम
उठाओ इसे
इसमें छिपा है
देवताओं अप्सराओं का गान
अबोध शिशुओं की मुस्कान

यह भर सकती है फूलों में रंग
पानी में आग
और आग में थोड़ी-सी रोशनी

फेंको इसे तौलकर
शिलाखण्ड से फूट पड़ेंगे निर्झर
बह जायेंगे ब्रह्मास्त्र

यह दे सकती है
अनाम को नाम
अरूप को रूप
सन्नाटे को शब्द

मिटा सकती है
जंगल और समुद्र की लिपि
बना सकती है 
धरती का व्याकरण

अगर तुम्हारी गफलत से
यह पड़ी रह गयी अंधेरे में
तो धरती पर छा जायेगा अंधकार
दहाड़ने लगेंगे हिंस्र पशु

उठाओ इसे
सिसक रही है यह अंधेरे में असहाय

इसे चाहिए एक हाथ
जिसने वेद लिखा
और लोहा गलाया

इसे चाहिए एक हाथ 
जो कभी मत लिखे उपसंहार 
उपसंहार के लिए छोड़ जाय 
इसे.
(7  अप्रैल 2 0 1  3 को लोकमत  (मराठी ) के साप्ताहिक मंथन  में प्रकाशित  )





Saturday, 2 March 2013

फ़िराक साहब की याद में

पने ज़माने के ख्यातनाम शायर फिराक गोरखपुरी के साथ यह इंटरव्यू हमने 1981 की सर्दियों में  इलाहाबाद में बैंक रोड पर स्थित उनके निवास पर लिया था. उस समय वह बीमार, बिस्तर पर पड़े रहते थे. इंटरव्यू काफी लम्बा था जिसे मैंने उस समय की तमाम बड़ी पत्र पत्रिकाओं के पास प्रकाशनार्थ भेजा था लेकिन किसी ने उसे प्रकाशित नहीं किया था. शायद इसलिए भी कि उन्होंने हिंदी और हिंदी के कुछ बड़े लेखकों के बारे में कुछ विवादित बातें भी कही थी. फिराक साहब के निधन के बाद, मुंबई (तब बम्बई ) प्रवास के दौरान अंग्रेजी साप्ताहिक सन्डे आब्जर्वर में कार्यरत हमारी मित्र ज्योति पुनवानी के जरिये पत्रिका के तत्कालीन संपादक विनोद मेहता से बात हुई थी. उन्होंने फिराक साहब का पूरा इंटरव्यू सुनने के बाद कहा था क्या इसे अंग्रेजी में ट्रांसलेट कर सकते हो? मैंने प्रकाशन के लिए तो हाँ कर दी थी लेकिन उसे अनुवाद करने से मना कर दिया था. तब हमारी मित्र ज्योति ने ही उसे अनूदित किया था. वह इंटरव्यू 4 अप्रैल 1982  के सन्डे आब्जर्वर में इंटरव्यू ऑफ़ द वीक के रूप में छपा था. बाद में जब दिल्ली में चन्दन मित्रा सन्डे आब्जर्वर के संपादक बने तो उन्होंने सन्डे आब्जर्वर के दस साल पूरा होने पर एक विशेषांक निकाला था. उसमें फिराक साहब के उस  इंटरव्यू का सम्पादित अंश भी प्रकाशित किया गया था. 3 मार्च को फिराक साहब की पुण्यतिथि के अवसर पर इसे अपने मित्रों-परिचितों से शेयर करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा. 


Monday, 18 February 2013

कांग्रेस के लिए राहुल नाम केवलम !



 अंततः नेहरु-गांधी परिवार के 43 वर्षीय ‘युवराज’ कहें अथवा वारिस, राहुल गांधी को उपाध्यक्ष का पद देकर स्वाधीनता आंदोलन के गर्भ से निकली 127-28 साल पुरानी राष्ट्रीय कांग्रेस में आधिकारिकतौर पर नंबर दो की हैसियत प्रदान कर दी गई. अब अगर कोई ‘मां-बेटा कांग्रेस’ कहे तो इसमें एतराज की बात नहीं होनी चाहिए. यानी मां अध्यक्ष, बेटा उपाध्यक्ष. हालांकि अगर उपाध्यक्ष नहीं भी बनाए गए होते तो भी कांग्रेस में राहुल गांधी की हैसियत को लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए था. उनकी यह हैसियत तो तकरीबन उसी समय तय हो गई थी जब उन्होंने 2004 में अपने पिता राजीव गांधी और फिर मां सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतकर सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण किया था. हालांकि 2006 में कांग्रेस के हैदराबाद अधिवेशन में और उसके बाद भी उन्हें सरकार और संगठन में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपे जाने के लिए जबरदस्त दबाव बनाया जाता रहा. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी एकाधिक अवसरों पर उनसे शासनतंत्र की बारीकियों को समझने के लिए उनके मंत्रिमंडल में शामिल होने का प्रस्ताव किया था लेकिन हर बार उन्होंने मना कर दिया था, शायद इसलिए भी कि अपने पिता की तरह वह भी सीधे सत्ता के शिखर पर ही बैठने का सपना संजोए हुए हैं. कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बीच में ही उन्हें सत्ता शिखर पर बिठाकर उनके ही नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़े जाने की वकालत करते रहते हैं. कारण चाहे मनमोहन सिंह की अनिच्छा रही हो या राहुल गांधी खुद चाहते रहे हों कि महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे तकरीबन आधे दर्जन मंत्रियों और तमाम मसलों पर भारी अंतर्विरोधों से घिरी इस सरकार का हिस्सा बनने अथवा इसका नेतृत्व करने की बनिस्बत उनके खुद के नेतृत्व में चुनाव लड़ने और जीतने के बाद ही वह प्रधानमंत्री बनेंगे, वह सरकार में शामिल नहीं हुए. अलबत्ता 2007 में उन्हें युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन के प्रभार के साथ कांग्रेस का  महाचिव बना दिया गया. उन्होंने युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष संगठनात्मक चुनावों के लिए चुनाव आयोग की तर्ज पर एक स्वतंत्र चुनाव प्राधिकरण गठित करवाकर उसकी ही देख रेख में इन दोनों संगठनों में सदस्यता भर्ती की समीक्षा से लेकर इनके संगठनात्मक चुनाव करवाए. कई स्तरों पर कुछ नए चेहरे भी उभरकर सामने आए लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के लिए युवा नेतृत्व विकसित कर सकने वाले इन संगठनों के चरित्र और इनकी कार्यशैली में कोई सकारात्मक बदलाव देखने को नहीं मिले. वह चाह कर भी युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन को एक जीवंत और जुझारू संगठन के रूप में खड़ा नहीं कर सके. एकाध अपवादों को छोड़ दें तो देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों और कालेजों में राष्ट्रीय छात्र संगठन का परचम नहीं लहरा सका.

  और अब छह साल बाद उपाध्यक्ष के पद पर नियुक्ति के साथ ही उन्हें आधिकारिक और औपचारिक तौर पर भी कांग्रेस संगठन में नंबर दो की हैसियत प्रदान कर दी गई. इससे पहले उन्हें कांग्रेस की चुनाव समिति की कमान सौंपकर भी यह संकेत देने की कोशिश की गई कि अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा. लेकिन उन्हें लगता था कि निर्णयकारी स्थिति मिलने के बाद ही वह कुछ कर सकेंगे. चर्चा उन्हें कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष अथवा प्रधान महासचिव बनाने की भी हो रही थी लेकिन इसके लिए समय अनुकूल नहीं समझा गया और उन्हें फिलहाल उपाध्यक्ष ही बनाया गया. वैसे, कांग्रेस के संविधान में कार्यकारी अध्यक्ष, प्रधान महासचिव और उपाध्यक्ष का पद भी नहीं है. कांग्रेस के इतिहास में सिर्फ एक बार इंदिरा गांधी के जमाने में कमलापति त्रिपाठी को कार्यकारी अध्यक्ष तथा हेमवतीनंदन बहुगुणा को प्रधान महासचिव बनाया गया था जबकि राजीव गांधी और सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते क्रमशः अर्जुन सिंह और जितेंद्र प्रसाद को उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया था. लेकिन तब की परिस्थितियां कुछ और थीं. अभी तो राहुल गांधी की कांग्रेस बननी है. देर सबेर कांग्रेस की पहिचान राहुल गांधी की कांग्रेस के रूप में ही होनी है. इसकी एक झलक जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के मौके पर भी देखने को मिली. वहां सिर्फ राहुल का ही जयकारा हुआ. उपाध्यक्ष बनने के बाद उनके शायद पहले इतने लंबे अंग्रेजी-हिंदी मिश्रित भाषण ने कांग्रेस के बड़े से बड़े नेताओं को भी उत्साहित और रुआंसा कर दिया. लंबे अरसे से चुनाव  जितानेवाले नेता की खोज में लगे कांग्रेस के नेताओं को एक बारगी उनमें उनके पिता स्व. राजीव गांधी का राजनीतिक अक्स दिखाई देने लगा. हालांकि उनके लिखित भाषण में भावुकता का बिखरा पुट ज्यादा था. देश, समाज और दल -कांग्रेस- के सामने मुंह बाए खड़ी समस्याओं और चुनौतियों के समाधान और उनसे निबटने की रणनीति के संकेत कम. उन्होंने अपनी मां, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आंसुओं के हवाले सत्ता के जहरीले स्वरूप को याद किया तो कांग्रेस संगठन में नियम कानून नहीं होने और होने की स्थिति में भी उनका पालन नहीं होने के साथ ही संगठन में पद और चुनावी टिकटों के वितरण में ‘एडहाकिज्म’ और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होते रहने की स्वीकारोक्ति की. कार्यकर्ताओं की कीमत पर पैरा ट्रूपर्स से लेकर दलबदलुओं को टिकट दिए जाने की बातें कहीं. यह बातें सच हो सकती हैं लेकिन इनके लिए जिम्मेदार कौन है. कांग्रेस संगठन और उसकी सरकारों पर भी कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो नेहरू-गांधी परिवार का ही वर्चस्व रहा है, खुद राहुल गांधी भी पिछले पांच-छह वर्षों से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और कांग्रेस की सर्वोच्च निर्णायक संस्था कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य रहे हैं. क्या कभी उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की किसी बैठक में इन कमियों को इंगित कर उन्हें सुधारने पर जोर दिया. यह सर्व विदित है कि उत्तराखंड में विधानसभा के चुनाव हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस के  अध्यक्ष दलित नेता यशपाल आर्य को सामने रखकर लड़े गए थे लेकिन सत्तारूढ़ होने पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा बन गए.

मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके द्वारा खाली की गई लोकसभा सीट के उपचुनाव के लिए उनके बेटे को उम्मीदवार बनाया गया जो हार गए. विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने से लेकर उनके बेटे को लोकसभा के उपचुनाव के लिए उम्मीदवार बनाए जाने तक की घटना क्या राहुल गांधी की कसौटी पर फिट बैठती हैं. अगर नहीं तो क्या किसी स्तर पर उन्होंने इसका विरोध किया था, किसी को भी नहीं मालूम. शायद अतीत के अनुभवों के मद्देनजर अब निर्णयकारी स्थिति में पहुंचने के बाद वह इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने शुरू करें. अभी तो उन्हें कांग्रेस संगठन और अगर जनादेश मिला तो सरकार की बागडोर भी हाथ में लेनी है यानी संगठन और सरकार में भी नंबर एक की हैसियत हासिल करनी है. जाहिर सी बात है कि अभी कुछ ही दिनों में कांग्रेस संगठन में राहुल गांधी की भविष्य की रणनीति के हिसाब से व्यापक रद्दोबदल होंगे जिसमें राहुल गांधी की पसंद साफ दिखेगी. हालांकि उन्होंने अपनी टीम में युवा के साथ् ही अनुभव को भी तरजीह मिलने के साथ ही नकारात्मकके बजाय सकारात्मक राजनीति करने की बातें कही हैं, कांग्रेस में बहुत सारे पुराने नेता-पदाधिकारी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर आशंकित नजर आने लगे हें. राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी तो 1984 में 40 साल की उम्र में ही कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बन गए थे. उनकी दादी इंदिरा गांधी भी 1959 में 41 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष बन गई थीं. हालांकि प्रधानमंत्री बनने में उन्हें कुछ और साल लग गए थे. इंदिरा गांधी के पिता, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी 40 साल की उम्र में ही 1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे. इस मामले में देखें तो राहुल गांधी अपने पुरखों से कुछ धीमी रफ्तार में आगे बढ़ रहे हैं.

लेकिन कांग्रेस में यह बदलाव, राहुल गांधी की उपाध्यक्ष के रूप में ताजपोशी देश और समाज की बात अभी छोड़ दें तो भी कांग्रेस के सामने पेश हो रही चुनौतियों का सामनाकरते हुए मंझधार में फंसती दिख रही इसकी चुनावी नैया को पार लगा सकेगा. इस साल, 2013 में नौ राज्यों-उत्तर पूर्व के त्रिपुरा, नगालैंड,  मेघालय,   दक्षिण भारत के  कर्नाटक, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम-में विधानसभा के चुनाव होने हैं. इन विधानसभा चुनावों को कांग्रेस के लिए सेमीफाइनल के रूप में देखा जा सकता है. इनमें से अधिकतर राज्यों में उसका मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी के साथ ही होगा. इससे पहले हुए हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनावों को इन दोनों दलों के बीच ‘क्वार्टर फाइनल’ के रूप में देखा गया. गुजरात में एक तरह से देखें तो यथास्थिति ही रही. भाजपा को पिछली बार मिली सीटों से दो कम और कांग्रेस के खाते में पिछली बार से दो सीटें ज्यादा आईं. लेकिन दूसरी तरफ से देखें तो इसे गुजरात में भाजपा की लगातार पांचवीं जीत, मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की जीत की तिकड़ी और कांग्रेस की लगातार पांचवीं पराजय भी कह सकते हैं. हिमाचल प्रदेश में जरूर तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद चुनावी जीत ने कांग्रेस का हौसला बढ़ाया होगा. कांग्रेस की और उसके नेतृत्व की असली परीक्षा तो 2013 के विधानसभा चुनावों और फिर फाइनल मुकाबले यानी लोकसभा के चुनाव में ही होगी. कायदे से लोकसभा के चुनाव 2014 के अप्रैल-मई महीने में होने चाहिए लेकिन जिस तरह का राजनीतिक माहौल बन रहा है, लोकसभा चुनाव समय से पहले भी कराए जाने के कयास लगने लगे हैं. कहने के लिए तो यह राजनीतिक फाइनल भी कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होगा, लेकिन इसमें मुलायम सिंह यादव, मायावती, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू और जगनमोहन रेड्डी जैसे क्षेत्रीय नेताओं या कहें क्षत्रपों की भी महती भूमिका होगी.

इन चुनौतियों का सामना करने की रणनीति पर विचार करने के लिए ही कांग्रेस के धुरंधर 18-19 जनवरी को राजस्थान की राजधानी जयपुर में चिंतन करने जुटे थे. इससे पहले भी कांग्रेस ने दो चिंतन शिविर किए थे. पहला मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में और फिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में. नब्बे के दशक के अंत में पचमढ़ी में कांग्रेस ने चुनाव पूर्व गठबंधन अथवा तालमेल के बजाए एकला चलो की रणनीति अख्तियार करने का फैसला किया था जबकि 2003 में शिमला में हुए चिंतन शिविर में उसे भाजपा को सत्ता से दूर रखने के नाम पर चुनाव पूर्व गठबंधन राजनीति के लिए तैयार या कहें विवश होना पड़ा था. उसके बाद से कांग्रेस लगातार दूसरी बार गठबंधन -यूपीए 1 और यूपीए 2- सरकार का नेतृत्व कर रही है. लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह उसके नेतृत्ववाली यूपीए 2 की सरकार पर इसके घटक दलों और बाहर से समर्थन करने वालों का दबाव बढ़ा है, इसके अंतर्विरोध सरकार और कांग्रेस पर भी भारी पड़ने लगे हैं. कांग्रेस से निकलकर तृणमूल कांग्रेस बनाने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यूपीए और इसकी सरकार से किनारा कर चुकी हैं. संसद में सरकार बाहर से समर्थन करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की बैसाखी पर टिकी है. इन दोनों दलों के नेता भी गाहे बगाहे सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देते रहते हैं. कांग्रेस कभी उन्हें लेन-देन के जरिए बहला-फुसलाकर तो कभी डरा-धमका कर परोक्ष और प्रत्यक्ष ढंग से उनका समर्थन हासिल कर सरकार चल पा रही है. कांग्रेस का एक बड़ा तबका फिर से इस बात पर विचार करने लगा है कि कांग्रेस के लिए क्या एकला चलो की रणनीति एक बार फिर श्रेयस्कर नहीं होगी. जयपुर के चिंतन शिविर में एक विचारणीय मुद्दा यह भी था. वस्तुस्थिति और जमीनी हकीकत का एहसास करते हुए कांग्रेस नेतृत्व को एक बार फिर गठबंधन राजनीति के सहारे ही आगे बढ़ने का फैसला करना पड़ा. पुराने घटक दलों को साथ बनाएरखने के साथ ही कुछ और नए संभावित सहयोगी दलों पर भी नजर रखने की बात कही गई जिनसे भविष्य में सहयोग-समर्थन लिया-दिया जा सकता है.

कमोबेस मुख्य विपक्षी दल भाजपा के सामने भी यही राजनीतिक विवशता साफ दिख रही है. जमीनी स्तर पर देखें तो भाजपा अपने बूते 300-350 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की स्थिति में भी नहीं है. तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, हरियाणा एवं उत्तर पूर्व के अधिकतर राज्यों में उसका नामलेवा भी नहीं है. बिहार, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में वह अपने सहयोगी-जनता दल -यू-, अकाली दल और शिवसेना पर आश्रित है. दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य के रूप में कर्नाटक में बना भाजपा का सत्तारूढ़ किला अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले भरभराने लगा है. इसी तरह से कांग्रेस भी बिहार, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में अकेले दम कुछ खास हासिल कर पाने की स्थिति में नहीं दिखती. उसके सामने दिल्ली, हरियाणा, आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश में पिछली बार जीती गई लोकसभा सीटों की संख्या बरकरार रखना बड़ी चुनौती साबित होगी. कहने का मतलब साफ है कि दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों के पास नए पुराने और कुछ नए सहयोगी क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चुनाव लड़ने के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिखता. कांग्रेस को तय करना होगा कि वह नए-पुराने सहयोगी दलों को साथ लेकर यूपीए 3 खड़ा करने के लिए तैयार है या नहीं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी इससे किनारा कर चुकी हैं. महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी के साथ इसके रिश्ते कभी भी बहुत मधुर नहीं रहे.चौधरी अजित सिंह कभी भी बहुत भरोसेमंद किसी के लिए भी नहीं रहे. तमिलनाडु में द्रमुक की हालत पतली हो चुकी है. विधानसभा के चुनाव में जयललिता के अन्नाद्रमुक के हाथों बुरी तरह पिटे द्रमुक के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबे हैं. यह भी एक बड़ा कारण है कि कई मुद्दों पर घोर असहमति के बावजूद द्रमुक कांग्रेस के साथ है. और कौन कांग्रेस के साथ जुड़ सकता है! फिलहाल तो यह एक अबूझ पहेली की तरह ही है. ले देकर बचते हैं लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान जो कांग्रेस के साथ् करीब रह कर भी यूपीए सरकार से दूर हैं. झारखंड में पिछले चुनाव में कांग्रेस के साथ गलबहियां कर चुके पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी कांग्रेस से दूर हो चुके हैं. कांग्रेस के उकसावे में भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेकर अर्जुन मुंडा की साझा सरकार गिराने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन और उनके महत्वाकांक्षी पुत्र हेमंत सोरेन कांग्रेस के सहयोग से राज्य में अपनी सरकार नहीं बनवा पाने के कारण ठगे से महसूस कर रहे हैं. उनके साथ कांग्रेस किसी भी तरह के चुनावी तालमेल की कल्पना राज्य में उनकी अथवा उनके नेतृत्व में साझा सरकार बनवाने के बाद ही कर सकती है. इस मामले में भाजपा की स्थिति थोड़ी बेहतर नजर आती है. उसके रणनीतिकार, खासतौर से राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद से ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन -राजग- को पुनर्जीवित करने और जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, असम गण परिषद एवं चौटाला परिवार के इंडियन लोकदल जैसे उसके पुराने घटकों और समर्थक दलों को राजग के बैनर तले एकजुट करने की कवायद में जुट गए हैं. आंध्र प्रदेश में उसकी निगाह पुराने कांग्रेसी जगन मोहन रेड्डी की वायएसआर कांग्रेस पर भी है जबकि उत्तर पूर्व में पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूर्नो ए संगमा के रूप में एक कद्दावर नेता राजग के साथ जुड़ सकता है.

कांग्रेस के सामने 2013 के चुनावी साल में भ्रष्टाचार, महंगाई और पिछले दिनों दिल्ली में एक पैरामेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार और देश के अन्य हिस्सों में भी गाहे बगाहे हो रही इस जैसी जघन्य घटनाओं के खिलाफ छात्र-युवाओं से लेकर हर उम्र के देशव्यापी जनाक्रोश जैसे सवाल भी चुनौती बनकर सामने खड़े हैं. मध्यमवर्ग का महंगाई, सोशल मीडिया के सहारे बाबा रामदेव, अन्ना हजारे एवं अरविंद केजरीवाल जैसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाले सिविल सोसाइटी के लोगों-सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिकों के आह्वान पर भ्रष्टाचार और कालेधन के विरोध में गाहे-बगाहे जमा होती भीड़ कांग्रेस और इसके नेतृत्ववाली सरकार के लिए भी सिरदर्द बना हुआ है. ईमानदार और मितभाषी छवि के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक, तकरीबन सभी मोर्चों पर विफल से रहे हैं. उनकी खुदकी ईमानदार छवि पर अभी तक बट्टा नहीं लगा है लेकिन उनपर भ्रष्ट मंत्रियों की सरपरस्ती का दाग तो लगते ही रहा है. जाहिर है कि उम्र के इस पड़ाव पर कांग्रेस तीसरी बार उन पर दाव लगाने से रही. सोनिया गांधी का राजनीतिक करिश्मा लगातार धूमिल पड़ते जा रहा है. उनके स्वास्थ्य को लेकर भी तरह-तरह की बातें कही जाती हैं. ले दे कर बचते हैं राहुल गांधी. वह अपेक्षाकृत युवा हैं और नेहरु गांधी परिवार के वारिस भी. उन पर किसी तरह के विवाद अथवा भ्रष्टाचार के आरापों  की कालिख भी अभी तक नहीं लगी है. कांग्रेस के लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी के रूप में युवा नेतृत्व केवल कांग्रेस के पास ही है. हालांकि उनके भीतर से अभी तक किसी तरह का राजनीतिक-प्रशासनिक करिश्मा निखरकर सामने नहीं आ सका है. कांग्रेस के ही एक पुराने नेता कहते हैं कि 1982 में दिल्ली में संपन्न सफल एशियाड को राजीव गांधी के नाम से भी जाना जाता है. उस समय वह कांग्रेस के महासचिव थे लेकिन उन्होंने एशियाड के सफल आयोजन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. राहुल गांधी के महासचिव रहते भी दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हुआ था. वह आयोजन समिति में भी थे लेकिन इन खेलों की चर्चा उनके सफल आयोजन के लिए नहीं बल्कि उसमें हुए भ्रटाचार और घोटालों, घटिया किस्म के निर्माण और सुरेश कलमाड़ी जैसे कांग्रेस के नेताओं और उनके करीबी नौकरशाहों की जेल के लिए ज्यादा हुई.

 राजनीतिक तौर पर भी देखें तो हाल के किसी चुनाव में राहुल गांधी कांग्रेस के लिए वोट दिलाने वाले नेता साबित नहीं हुए. बिहार, उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात विधानसभा के चुनावों में भी वह मतदाताओं को कांग्रेस के प्रति आकर्षित करने में विफल ही साबित हुए. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की खस्ता हालत किसी से छिपी नहीं है. 2004 के लोकसभा चुनाव में वहां कांग्रेस को केवल दस सीटें ही मिल सकी थीं जिनमें दो सीटें मां -रायबरेली- और बेटे -अमेठी- की ही थीं. कांग्रेस की हालत दुरुस्त करने के इरादे से राहुल गांधी ने 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले अपनी पूरी राजनीतिक ताकत उत्तर प्रदेश में झोंक दी थी. उन्होंने व्यापक दौरे किए. बुंदेलखंड के पिछड़े, अकाल ग्रस्त इलाकों में दलितों के घरों-झोंपड़ों में गए. कांग्रेस नेतृत्व और बहुत सारे राजनीतिक प्रेक्षकों को भी लगा था कि 37 वर्षीय युवा राहुल के राजनीतिक करिश्मे से प्रभावित होकर यूपी के युवा एवं कांग्रेस का परंपरागत जनाधार -दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण कांग्रेस के साथ जुड़ेंगे और इस सबसे पुरानी पार्टी का यूपी में स्वर्णिम इतिहास एक बार फिर वर्तमान बन सकेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ और 400 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस के खाते में केवल 22 सीटें ही गिनी जा सकीं. लेकिन राहुल हिम्मत नहीं हारे और कारण चाहे उनका अथक प्ररिश्रम रहा हो अथवा कुछ और दो साल बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी की 80 में से 22 सीटें हासिल हो गईं. और उनके कुशल राजनीतिक नेतृत्व की सफलता का यशोगान शुरू हो गया. लेकिन अभी पिछले साल एक बार फिर यूपी विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस अपनी असली हैसियत पर आ गई. उसे केवल 28 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, पंजाब में सुखबीर सिंह बादल न सिर्फ युवा नेता के रूप में अपनी पहचान साबित करने में सफल रहे, उनके परिश्रम और रणनीति ने उनके राज्यों में राहुल गांधी की कांग्रेस को धूल चटाने में अहम भूमिका निभाई.

दरअसल, कांग्रेस और उससे भी अधिक देशवासियों, छात्र-युवाओं को अब तक यह भी पता नहीं चल सका है कि राहुल गांधी के पास भावी भारत को बनाने और इसकी युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किस तरह के सपने और कार्यक्रम हैं. न वह संसद में बोलते हैं और ना सड़क पर और ना ही वह मीडिया के सामने भी खुलकर अपनी बातें रखना पसंद करते हैं. संसद में उठे महंगाई, भ्रष्टाचार-घोटालों की बातें छोड़ दें तो भी, मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में सीधे विदेशी निवेश की अनुमति, सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति में अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण, दिल्ली में 23 वर्षीय पैरामेडिकल छात्रा के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दे हैं जिन पर राहुल गांधी की खामोशी ने युवाओं को निराश ही किया. सामूहिक बलात्कार की घटना के विरुद्ध दिल्ली के इंडियागेट से लेकर राजपथ पर जमा छात्र-युवाओं के हाथों में लगी तख्तियों पर साफ लिखा था, ‘युवा नेता’ राहुल कहां हैं, हम ‘छात्र-युवा’ यहां हैं.’ बिहार, यूपी और अब गुजरात विधानसभा के चुनावों में मिली विफलता के बाद उन्हें भावी प्रधानमंत्री के बतौर पेश करने को उद्धत  कांग्रेसी भी अनौपचारिक बातचीत में उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल खड़ा करने लगे थे.  लोकसभा के चुनाव जब भी हों, कांग्रेस के लिए संतोष और सुकून की बात यही हो सकती है कि विपक्ष यानी भाजपानीत राजग और मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में एक बार फिर खड़ा होने की कोशिश में लगा कुछ गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई क्षेत्रीय दलों के तीसरे मोर्चे का हाल भी बहुत अच्छा नहीं हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरे कार्यकाल की दौड़ से बाहर होना पड़ा. राजनाथ सिंह के नए अध्यक्ष के रूप में भाजपा की कमान संभालने के बाद गुजरात में एक बार फिर विजेता के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी को भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भावी प्रधानमंत्री के बतौर पेश किया जाएगा कि नहीं. उनका नेतृत्व भाजपा के जनता दल-यू-जैसे सहयोगी दलों को कुबूल होगा कि नहीं, राजग का और विस्तार होगा कि नहीं, इस तरह के कई सारे सवाल भाजपा और संघ के नेतृत्व को लगातार मथ रहे हैं. हाल के वर्षों में ताकतवतर होकर उभरे क्षेत्रीय दलों और उनके क्षत्रपों में से भी अभी कोई ऐसा नहीं दिखता जिसके नाम पर बाकी सभी सहमत हो सकें. वैसे भी तथाकथित तीसरे मोर्चे को अपने तईं बहुमत तो मिलने से रहा. उन्हें केंद्र में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस अथवा भाजपा के ही आश्रित रहना होगा. इस तरह के अंतर्विरोधों के बीच कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि अगले लोकलुभावन बजट में खाद्य सुरक्षा विधेयक, सबके लिए सुलभ स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधाएं, निराश्रितों को पेंशन और नकद सबसिडी यानी ‘आपका पैसा, आपके हाथ’ जैसी योजनाओं और नारों के साथ लोकसभा के अगले चुनाव में वह अपने विरोधियों पर भारी पड़ सकेगी. क्या वाकई ऐसा हो सकेगा? इसकी बानगी 2013 के विधानसभा चुनावों में ही देखने को मिल जाएगी और वैसे भी लोकसभा चुनाव भी कहां बहुत दूर हैं.

मासिक पत्रिका समकालीन सरोकार के फरवरी 2013 वाद में प्रकाशित आमुखकथा . यह आलेख कांग्रेस के जयपुर में संपन्न चिंतन शिविर के कुछ ही दिन बाद लिखा गया था.