अंततः नेहरु-गांधी परिवार के 43 वर्षीय ‘युवराज’ कहें अथवा वारिस, राहुल गांधी को उपाध्यक्ष का पद देकर स्वाधीनता आंदोलन के गर्भ से निकली 127-28 साल पुरानी राष्ट्रीय कांग्रेस में आधिकारिकतौर पर नंबर दो की हैसियत प्रदान कर दी गई. अब अगर कोई ‘मां-बेटा कांग्रेस’ कहे तो इसमें एतराज की बात नहीं होनी चाहिए. यानी मां अध्यक्ष, बेटा उपाध्यक्ष. हालांकि अगर उपाध्यक्ष नहीं भी बनाए गए होते तो भी कांग्रेस में राहुल गांधी की हैसियत को लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए था. उनकी यह हैसियत तो तकरीबन उसी समय तय हो गई थी जब उन्होंने 2004 में अपने पिता राजीव गांधी और फिर मां सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतकर सक्रिय राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण किया था. हालांकि 2006 में कांग्रेस के हैदराबाद अधिवेशन में और उसके बाद भी उन्हें सरकार और संगठन में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपे जाने के लिए जबरदस्त दबाव बनाया जाता रहा. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी एकाधिक अवसरों पर उनसे शासनतंत्र की बारीकियों को समझने के लिए उनके मंत्रिमंडल में शामिल होने का प्रस्ताव किया था लेकिन हर बार उन्होंने मना कर दिया था, शायद इसलिए भी कि अपने पिता की तरह वह भी सीधे सत्ता के शिखर पर ही बैठने का सपना संजोए हुए हैं. कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बीच में ही उन्हें सत्ता शिखर पर बिठाकर उनके ही नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़े जाने की वकालत करते रहते हैं. कारण चाहे मनमोहन सिंह की अनिच्छा रही हो या राहुल गांधी खुद चाहते रहे हों कि महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे तकरीबन आधे दर्जन मंत्रियों और तमाम मसलों पर भारी अंतर्विरोधों से घिरी इस सरकार का हिस्सा बनने अथवा इसका नेतृत्व करने की बनिस्बत उनके खुद के नेतृत्व में चुनाव लड़ने और जीतने के बाद ही वह प्रधानमंत्री बनेंगे, वह सरकार में शामिल नहीं हुए. अलबत्ता 2007 में उन्हें युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन के प्रभार के साथ कांग्रेस का महाचिव बना दिया गया. उन्होंने युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष संगठनात्मक चुनावों के लिए चुनाव आयोग की तर्ज पर एक स्वतंत्र चुनाव प्राधिकरण गठित करवाकर उसकी ही देख रेख में इन दोनों संगठनों में सदस्यता भर्ती की समीक्षा से लेकर इनके संगठनात्मक चुनाव करवाए. कई स्तरों पर कुछ नए चेहरे भी उभरकर सामने आए लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के लिए युवा नेतृत्व विकसित कर सकने वाले इन संगठनों के चरित्र और इनकी कार्यशैली में कोई सकारात्मक बदलाव देखने को नहीं मिले. वह चाह कर भी युवा कांग्रेस और राष्ट्रीय छात्र संगठन को एक जीवंत और जुझारू संगठन के रूप में खड़ा नहीं कर सके. एकाध अपवादों को छोड़ दें तो देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों और कालेजों में राष्ट्रीय छात्र संगठन का परचम नहीं लहरा सका.
और अब छह साल बाद उपाध्यक्ष के पद पर नियुक्ति के साथ ही उन्हें आधिकारिक और औपचारिक तौर पर भी कांग्रेस संगठन में नंबर दो की हैसियत प्रदान कर दी गई. इससे पहले उन्हें कांग्रेस की चुनाव समिति की कमान सौंपकर भी यह संकेत देने की कोशिश की गई कि अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा. लेकिन उन्हें लगता था कि निर्णयकारी स्थिति मिलने के बाद ही वह कुछ कर सकेंगे. चर्चा उन्हें कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष अथवा प्रधान महासचिव बनाने की भी हो रही थी लेकिन इसके लिए समय अनुकूल नहीं समझा गया और उन्हें फिलहाल उपाध्यक्ष ही बनाया गया. वैसे, कांग्रेस के संविधान में कार्यकारी अध्यक्ष, प्रधान महासचिव और उपाध्यक्ष का पद भी नहीं है. कांग्रेस के इतिहास में सिर्फ एक बार इंदिरा गांधी के जमाने में कमलापति त्रिपाठी को कार्यकारी अध्यक्ष तथा हेमवतीनंदन बहुगुणा को प्रधान महासचिव बनाया गया था जबकि राजीव गांधी और सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते क्रमशः अर्जुन सिंह और जितेंद्र प्रसाद को उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया था. लेकिन तब की परिस्थितियां कुछ और थीं. अभी तो राहुल गांधी की कांग्रेस बननी है. देर सबेर कांग्रेस की पहिचान राहुल गांधी की कांग्रेस के रूप में ही होनी है. इसकी एक झलक जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के मौके पर भी देखने को मिली. वहां सिर्फ राहुल का ही जयकारा हुआ. उपाध्यक्ष बनने के बाद उनके शायद पहले इतने लंबे अंग्रेजी-हिंदी मिश्रित भाषण ने कांग्रेस के बड़े से बड़े नेताओं को भी उत्साहित और रुआंसा कर दिया. लंबे अरसे से चुनाव जितानेवाले नेता की खोज में लगे कांग्रेस के नेताओं को एक बारगी उनमें उनके पिता स्व. राजीव गांधी का राजनीतिक अक्स दिखाई देने लगा. हालांकि उनके लिखित भाषण में भावुकता का बिखरा पुट ज्यादा था. देश, समाज और दल -कांग्रेस- के सामने मुंह बाए खड़ी समस्याओं और चुनौतियों के समाधान और उनसे निबटने की रणनीति के संकेत कम. उन्होंने अपनी मां, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आंसुओं के हवाले सत्ता के जहरीले स्वरूप को याद किया तो कांग्रेस संगठन में नियम कानून नहीं होने और होने की स्थिति में भी उनका पालन नहीं होने के साथ ही संगठन में पद और चुनावी टिकटों के वितरण में ‘एडहाकिज्म’ और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होते रहने की स्वीकारोक्ति की. कार्यकर्ताओं की कीमत पर पैरा ट्रूपर्स से लेकर दलबदलुओं को टिकट दिए जाने की बातें कहीं. यह बातें सच हो सकती हैं लेकिन इनके लिए जिम्मेदार कौन है. कांग्रेस संगठन और उसकी सरकारों पर भी कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो नेहरू-गांधी परिवार का ही वर्चस्व रहा है, खुद राहुल गांधी भी पिछले पांच-छह वर्षों से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और कांग्रेस की सर्वोच्च निर्णायक संस्था कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य रहे हैं. क्या कभी उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की किसी बैठक में इन कमियों को इंगित कर उन्हें सुधारने पर जोर दिया. यह सर्व विदित है कि उत्तराखंड में विधानसभा के चुनाव हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष दलित नेता यशपाल आर्य को सामने रखकर लड़े गए थे लेकिन सत्तारूढ़ होने पर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा बन गए.
मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके द्वारा खाली की गई लोकसभा सीट के उपचुनाव के लिए उनके बेटे को उम्मीदवार बनाया गया जो हार गए. विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने से लेकर उनके बेटे को लोकसभा के उपचुनाव के लिए उम्मीदवार बनाए जाने तक की घटना क्या राहुल गांधी की कसौटी पर फिट बैठती हैं. अगर नहीं तो क्या किसी स्तर पर उन्होंने इसका विरोध किया था, किसी को भी नहीं मालूम. शायद अतीत के अनुभवों के मद्देनजर अब निर्णयकारी स्थिति में पहुंचने के बाद वह इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने शुरू करें. अभी तो उन्हें कांग्रेस संगठन और अगर जनादेश मिला तो सरकार की बागडोर भी हाथ में लेनी है यानी संगठन और सरकार में भी नंबर एक की हैसियत हासिल करनी है. जाहिर सी बात है कि अभी कुछ ही दिनों में कांग्रेस संगठन में राहुल गांधी की भविष्य की रणनीति के हिसाब से व्यापक रद्दोबदल होंगे जिसमें राहुल गांधी की पसंद साफ दिखेगी. हालांकि उन्होंने अपनी टीम में युवा के साथ् ही अनुभव को भी तरजीह मिलने के साथ ही नकारात्मकके बजाय सकारात्मक राजनीति करने की बातें कही हैं, कांग्रेस में बहुत सारे पुराने नेता-पदाधिकारी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर आशंकित नजर आने लगे हें. राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी तो 1984 में 40 साल की उम्र में ही कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बन गए थे. उनकी दादी इंदिरा गांधी भी 1959 में 41 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष बन गई थीं. हालांकि प्रधानमंत्री बनने में उन्हें कुछ और साल लग गए थे. इंदिरा गांधी के पिता, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी 40 साल की उम्र में ही 1929 में कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे. इस मामले में देखें तो राहुल गांधी अपने पुरखों से कुछ धीमी रफ्तार में आगे बढ़ रहे हैं.
लेकिन कांग्रेस में यह बदलाव, राहुल गांधी की उपाध्यक्ष के रूप में ताजपोशी देश और समाज की बात अभी छोड़ दें तो भी कांग्रेस के सामने पेश हो रही चुनौतियों का सामनाकरते हुए मंझधार में फंसती दिख रही इसकी चुनावी नैया को पार लगा सकेगा. इस साल, 2013 में नौ राज्यों-उत्तर पूर्व के त्रिपुरा, नगालैंड, मेघालय, दक्षिण भारत के कर्नाटक, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम-में विधानसभा के चुनाव होने हैं. इन विधानसभा चुनावों को कांग्रेस के लिए सेमीफाइनल के रूप में देखा जा सकता है. इनमें से अधिकतर राज्यों में उसका मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी के साथ ही होगा. इससे पहले हुए हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनावों को इन दोनों दलों के बीच ‘क्वार्टर फाइनल’ के रूप में देखा गया. गुजरात में एक तरह से देखें तो यथास्थिति ही रही. भाजपा को पिछली बार मिली सीटों से दो कम और कांग्रेस के खाते में पिछली बार से दो सीटें ज्यादा आईं. लेकिन दूसरी तरफ से देखें तो इसे गुजरात में भाजपा की लगातार पांचवीं जीत, मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की जीत की तिकड़ी और कांग्रेस की लगातार पांचवीं पराजय भी कह सकते हैं. हिमाचल प्रदेश में जरूर तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद चुनावी जीत ने कांग्रेस का हौसला बढ़ाया होगा. कांग्रेस की और उसके नेतृत्व की असली परीक्षा तो 2013 के विधानसभा चुनावों और फिर फाइनल मुकाबले यानी लोकसभा के चुनाव में ही होगी. कायदे से लोकसभा के चुनाव 2014 के अप्रैल-मई महीने में होने चाहिए लेकिन जिस तरह का राजनीतिक माहौल बन रहा है, लोकसभा चुनाव समय से पहले भी कराए जाने के कयास लगने लगे हैं. कहने के लिए तो यह राजनीतिक फाइनल भी कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होगा, लेकिन इसमें मुलायम सिंह यादव, मायावती, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू और जगनमोहन रेड्डी जैसे क्षेत्रीय नेताओं या कहें क्षत्रपों की भी महती भूमिका होगी.
इन चुनौतियों का सामना करने की रणनीति पर विचार करने के लिए ही कांग्रेस के धुरंधर 18-19 जनवरी को राजस्थान की राजधानी जयपुर में चिंतन करने जुटे थे. इससे पहले भी कांग्रेस ने दो चिंतन शिविर किए थे. पहला मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में और फिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में. नब्बे के दशक के अंत में पचमढ़ी में कांग्रेस ने चुनाव पूर्व गठबंधन अथवा तालमेल के बजाए एकला चलो की रणनीति अख्तियार करने का फैसला किया था जबकि 2003 में शिमला में हुए चिंतन शिविर में उसे भाजपा को सत्ता से दूर रखने के नाम पर चुनाव पूर्व गठबंधन राजनीति के लिए तैयार या कहें विवश होना पड़ा था. उसके बाद से कांग्रेस लगातार दूसरी बार गठबंधन -यूपीए 1 और यूपीए 2- सरकार का नेतृत्व कर रही है. लेकिन हाल के वर्षों में जिस तरह उसके नेतृत्ववाली यूपीए 2 की सरकार पर इसके घटक दलों और बाहर से समर्थन करने वालों का दबाव बढ़ा है, इसके अंतर्विरोध सरकार और कांग्रेस पर भी भारी पड़ने लगे हैं. कांग्रेस से निकलकर तृणमूल कांग्रेस बनाने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यूपीए और इसकी सरकार से किनारा कर चुकी हैं. संसद में सरकार बाहर से समर्थन करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की बैसाखी पर टिकी है. इन दोनों दलों के नेता भी गाहे बगाहे सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी देते रहते हैं. कांग्रेस कभी उन्हें लेन-देन के जरिए बहला-फुसलाकर तो कभी डरा-धमका कर परोक्ष और प्रत्यक्ष ढंग से उनका समर्थन हासिल कर सरकार चल पा रही है. कांग्रेस का एक बड़ा तबका फिर से इस बात पर विचार करने लगा है कि कांग्रेस के लिए क्या एकला चलो की रणनीति एक बार फिर श्रेयस्कर नहीं होगी. जयपुर के चिंतन शिविर में एक विचारणीय मुद्दा यह भी था. वस्तुस्थिति और जमीनी हकीकत का एहसास करते हुए कांग्रेस नेतृत्व को एक बार फिर गठबंधन राजनीति के सहारे ही आगे बढ़ने का फैसला करना पड़ा. पुराने घटक दलों को साथ बनाएरखने के साथ ही कुछ और नए संभावित सहयोगी दलों पर भी नजर रखने की बात कही गई जिनसे भविष्य में सहयोग-समर्थन लिया-दिया जा सकता है.
कमोबेस मुख्य विपक्षी दल भाजपा के सामने भी यही राजनीतिक विवशता साफ दिख रही है. जमीनी स्तर पर देखें तो भाजपा अपने बूते 300-350 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की स्थिति में भी नहीं है. तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, हरियाणा एवं उत्तर पूर्व के अधिकतर राज्यों में उसका नामलेवा भी नहीं है. बिहार, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में वह अपने सहयोगी-जनता दल -यू-, अकाली दल और शिवसेना पर आश्रित है. दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य के रूप में कर्नाटक में बना भाजपा का सत्तारूढ़ किला अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले भरभराने लगा है. इसी तरह से कांग्रेस भी बिहार, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में अकेले दम कुछ खास हासिल कर पाने की स्थिति में नहीं दिखती. उसके सामने दिल्ली, हरियाणा, आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश में पिछली बार जीती गई लोकसभा सीटों की संख्या बरकरार रखना बड़ी चुनौती साबित होगी. कहने का मतलब साफ है कि दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों के पास नए पुराने और कुछ नए सहयोगी क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चुनाव लड़ने के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिखता. कांग्रेस को तय करना होगा कि वह नए-पुराने सहयोगी दलों को साथ लेकर यूपीए 3 खड़ा करने के लिए तैयार है या नहीं. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी इससे किनारा कर चुकी हैं. महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी के साथ इसके रिश्ते कभी भी बहुत मधुर नहीं रहे.चौधरी अजित सिंह कभी भी बहुत भरोसेमंद किसी के लिए भी नहीं रहे. तमिलनाडु में द्रमुक की हालत पतली हो चुकी है. विधानसभा के चुनाव में जयललिता के अन्नाद्रमुक के हाथों बुरी तरह पिटे द्रमुक के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों में आकंठ डूबे हैं. यह भी एक बड़ा कारण है कि कई मुद्दों पर घोर असहमति के बावजूद द्रमुक कांग्रेस के साथ है. और कौन कांग्रेस के साथ जुड़ सकता है! फिलहाल तो यह एक अबूझ पहेली की तरह ही है. ले देकर बचते हैं लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान जो कांग्रेस के साथ् करीब रह कर भी यूपीए सरकार से दूर हैं. झारखंड में पिछले चुनाव में कांग्रेस के साथ गलबहियां कर चुके पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी कांग्रेस से दूर हो चुके हैं. कांग्रेस के उकसावे में भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेकर अर्जुन मुंडा की साझा सरकार गिराने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन और उनके महत्वाकांक्षी पुत्र हेमंत सोरेन कांग्रेस के सहयोग से राज्य में अपनी सरकार नहीं बनवा पाने के कारण ठगे से महसूस कर रहे हैं. उनके साथ कांग्रेस किसी भी तरह के चुनावी तालमेल की कल्पना राज्य में उनकी अथवा उनके नेतृत्व में साझा सरकार बनवाने के बाद ही कर सकती है. इस मामले में भाजपा की स्थिति थोड़ी बेहतर नजर आती है. उसके रणनीतिकार, खासतौर से राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने के बाद से ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन -राजग- को पुनर्जीवित करने और जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, असम गण परिषद एवं चौटाला परिवार के इंडियन लोकदल जैसे उसके पुराने घटकों और समर्थक दलों को राजग के बैनर तले एकजुट करने की कवायद में जुट गए हैं. आंध्र प्रदेश में उसकी निगाह पुराने कांग्रेसी जगन मोहन रेड्डी की वायएसआर कांग्रेस पर भी है जबकि उत्तर पूर्व में पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूर्नो ए संगमा के रूप में एक कद्दावर नेता राजग के साथ जुड़ सकता है.
कांग्रेस के सामने 2013 के चुनावी साल में भ्रष्टाचार, महंगाई और पिछले दिनों दिल्ली में एक पैरामेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार और देश के अन्य हिस्सों में भी गाहे बगाहे हो रही इस जैसी जघन्य घटनाओं के खिलाफ छात्र-युवाओं से लेकर हर उम्र के देशव्यापी जनाक्रोश जैसे सवाल भी चुनौती बनकर सामने खड़े हैं. मध्यमवर्ग का महंगाई, सोशल मीडिया के सहारे बाबा रामदेव, अन्ना हजारे एवं अरविंद केजरीवाल जैसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाले सिविल सोसाइटी के लोगों-सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिकों के आह्वान पर भ्रष्टाचार और कालेधन के विरोध में गाहे-बगाहे जमा होती भीड़ कांग्रेस और इसके नेतृत्ववाली सरकार के लिए भी सिरदर्द बना हुआ है. ईमानदार और मितभाषी छवि के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक, तकरीबन सभी मोर्चों पर विफल से रहे हैं. उनकी खुदकी ईमानदार छवि पर अभी तक बट्टा नहीं लगा है लेकिन उनपर भ्रष्ट मंत्रियों की सरपरस्ती का दाग तो लगते ही रहा है. जाहिर है कि उम्र के इस पड़ाव पर कांग्रेस तीसरी बार उन पर दाव लगाने से रही. सोनिया गांधी का राजनीतिक करिश्मा लगातार धूमिल पड़ते जा रहा है. उनके स्वास्थ्य को लेकर भी तरह-तरह की बातें कही जाती हैं. ले दे कर बचते हैं राहुल गांधी. वह अपेक्षाकृत युवा हैं और नेहरु गांधी परिवार के वारिस भी. उन पर किसी तरह के विवाद अथवा भ्रष्टाचार के आरापों की कालिख भी अभी तक नहीं लगी है. कांग्रेस के लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी के रूप में युवा नेतृत्व केवल कांग्रेस के पास ही है. हालांकि उनके भीतर से अभी तक किसी तरह का राजनीतिक-प्रशासनिक करिश्मा निखरकर सामने नहीं आ सका है. कांग्रेस के ही एक पुराने नेता कहते हैं कि 1982 में दिल्ली में संपन्न सफल एशियाड को राजीव गांधी के नाम से भी जाना जाता है. उस समय वह कांग्रेस के महासचिव थे लेकिन उन्होंने एशियाड के सफल आयोजन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. राहुल गांधी के महासचिव रहते भी दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन हुआ था. वह आयोजन समिति में भी थे लेकिन इन खेलों की चर्चा उनके सफल आयोजन के लिए नहीं बल्कि उसमें हुए भ्रटाचार और घोटालों, घटिया किस्म के निर्माण और सुरेश कलमाड़ी जैसे कांग्रेस के नेताओं और उनके करीबी नौकरशाहों की जेल के लिए ज्यादा हुई.
राजनीतिक तौर पर भी देखें तो हाल के किसी चुनाव में राहुल गांधी कांग्रेस के लिए वोट दिलाने वाले नेता साबित नहीं हुए. बिहार, उत्तर प्रदेश के बाद गुजरात विधानसभा के चुनावों में भी वह मतदाताओं को कांग्रेस के प्रति आकर्षित करने में विफल ही साबित हुए. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की खस्ता हालत किसी से छिपी नहीं है. 2004 के लोकसभा चुनाव में वहां कांग्रेस को केवल दस सीटें ही मिल सकी थीं जिनमें दो सीटें मां -रायबरेली- और बेटे -अमेठी- की ही थीं. कांग्रेस की हालत दुरुस्त करने के इरादे से राहुल गांधी ने 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले अपनी पूरी राजनीतिक ताकत उत्तर प्रदेश में झोंक दी थी. उन्होंने व्यापक दौरे किए. बुंदेलखंड के पिछड़े, अकाल ग्रस्त इलाकों में दलितों के घरों-झोंपड़ों में गए. कांग्रेस नेतृत्व और बहुत सारे राजनीतिक प्रेक्षकों को भी लगा था कि 37 वर्षीय युवा राहुल के राजनीतिक करिश्मे से प्रभावित होकर यूपी के युवा एवं कांग्रेस का परंपरागत जनाधार -दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण कांग्रेस के साथ जुड़ेंगे और इस सबसे पुरानी पार्टी का यूपी में स्वर्णिम इतिहास एक बार फिर वर्तमान बन सकेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ और 400 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस के खाते में केवल 22 सीटें ही गिनी जा सकीं. लेकिन राहुल हिम्मत नहीं हारे और कारण चाहे उनका अथक प्ररिश्रम रहा हो अथवा कुछ और दो साल बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी की 80 में से 22 सीटें हासिल हो गईं. और उनके कुशल राजनीतिक नेतृत्व की सफलता का यशोगान शुरू हो गया. लेकिन अभी पिछले साल एक बार फिर यूपी विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस अपनी असली हैसियत पर आ गई. उसे केवल 28 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, पंजाब में सुखबीर सिंह बादल न सिर्फ युवा नेता के रूप में अपनी पहचान साबित करने में सफल रहे, उनके परिश्रम और रणनीति ने उनके राज्यों में राहुल गांधी की कांग्रेस को धूल चटाने में अहम भूमिका निभाई.
दरअसल, कांग्रेस और उससे भी अधिक देशवासियों, छात्र-युवाओं को अब तक यह भी पता नहीं चल सका है कि राहुल गांधी के पास भावी भारत को बनाने और इसकी युवा पीढ़ी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किस तरह के सपने और कार्यक्रम हैं. न वह संसद में बोलते हैं और ना सड़क पर और ना ही वह मीडिया के सामने भी खुलकर अपनी बातें रखना पसंद करते हैं. संसद में उठे महंगाई, भ्रष्टाचार-घोटालों की बातें छोड़ दें तो भी, मल्टी ब्रांड खुदरा क्षेत्र में सीधे विदेशी निवेश की अनुमति, सरकारी कर्मचारियों की पदोन्नति में अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों के लिए आरक्षण, दिल्ली में 23 वर्षीय पैरामेडिकल छात्रा के साथ बर्बर सामूहिक बलात्कार जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दे हैं जिन पर राहुल गांधी की खामोशी ने युवाओं को निराश ही किया. सामूहिक बलात्कार की घटना के विरुद्ध दिल्ली के इंडियागेट से लेकर राजपथ पर जमा छात्र-युवाओं के हाथों में लगी तख्तियों पर साफ लिखा था, ‘युवा नेता’ राहुल कहां हैं, हम ‘छात्र-युवा’ यहां हैं.’ बिहार, यूपी और अब गुजरात विधानसभा के चुनावों में मिली विफलता के बाद उन्हें भावी प्रधानमंत्री के बतौर पेश करने को उद्धत कांग्रेसी भी अनौपचारिक बातचीत में उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर सवाल खड़ा करने लगे थे. लोकसभा के चुनाव जब भी हों, कांग्रेस के लिए संतोष और सुकून की बात यही हो सकती है कि विपक्ष यानी भाजपानीत राजग और मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में एक बार फिर खड़ा होने की कोशिश में लगा कुछ गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई क्षेत्रीय दलों के तीसरे मोर्चे का हाल भी बहुत अच्छा नहीं हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे नितिन गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरे कार्यकाल की दौड़ से बाहर होना पड़ा. राजनाथ सिंह के नए अध्यक्ष के रूप में भाजपा की कमान संभालने के बाद गुजरात में एक बार फिर विजेता के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी को भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के भावी प्रधानमंत्री के बतौर पेश किया जाएगा कि नहीं. उनका नेतृत्व भाजपा के जनता दल-यू-जैसे सहयोगी दलों को कुबूल होगा कि नहीं, राजग का और विस्तार होगा कि नहीं, इस तरह के कई सारे सवाल भाजपा और संघ के नेतृत्व को लगातार मथ रहे हैं. हाल के वर्षों में ताकतवतर होकर उभरे क्षेत्रीय दलों और उनके क्षत्रपों में से भी अभी कोई ऐसा नहीं दिखता जिसके नाम पर बाकी सभी सहमत हो सकें. वैसे भी तथाकथित तीसरे मोर्चे को अपने तईं बहुमत तो मिलने से रहा. उन्हें केंद्र में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस अथवा भाजपा के ही आश्रित रहना होगा. इस तरह के अंतर्विरोधों के बीच कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि अगले लोकलुभावन बजट में खाद्य सुरक्षा विधेयक, सबके लिए सुलभ स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधाएं, निराश्रितों को पेंशन और नकद सबसिडी यानी ‘आपका पैसा, आपके हाथ’ जैसी योजनाओं और नारों के साथ लोकसभा के अगले चुनाव में वह अपने विरोधियों पर भारी पड़ सकेगी. क्या वाकई ऐसा हो सकेगा? इसकी बानगी 2013 के विधानसभा चुनावों में ही देखने को मिल जाएगी और वैसे भी लोकसभा चुनाव भी कहां बहुत दूर हैं.
मासिक पत्रिका समकालीन सरोकार के फरवरी 2013 वाद में प्रकाशित आमुखकथा . यह आलेख कांग्रेस के जयपुर में संपन्न चिंतन शिविर के कुछ ही दिन बाद लिखा गया था.