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साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से बातचीत के क्षण |
पहले हिंदी भाषी लेखक-साहित्यकार के रूप में साहित्य अकादमी का निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाने के बारे में कुछ कहेंगे?
साहित्य अकादमी इस देश में साहित्य की सर्वोच्च संस्था है. इसमें अघ्यक्ष के रूप में किसी लेखक का निर्विरोध चुना जाना बहुत संतोष देनेवाली घटना है. मैं भी प्रसन्नता से कुछ अधिक संतोष महसूस कर रहा हूं. भारत में बहुत सारी भाषाएं हैं और हर भाषा में बहुत ही योग्य और प्रतिष्ठित लेखक-साहित्यकार हैं. अब तक जो लेखक-साहित्यकार इस पद पर यहां चुने गए हैं, नि:संदेह वे बड़े कद के लेखक थे. उन सबके प्रति मेरे मन में बड़ा सम्मानभाव है.
अकादमी की चुनाव प्रक्रिया क्या है?
ऐसे समय में जबकि देश में साहित्य की तमाम संस्थाओं, अकादमियों पर निष्क्रियता के आरोप लगते हैं. साहित्य अकादमी अपनी स्वायत्त सक्रियता बनाए हुए है. इसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभी भाषाओं के संयोजक मतदान द्वारा चुने जाते हैं. मतदान करने वाले भी लेखक ही होते हैं. अकादमी की स्थापना देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने की थी. दस वर्षों (मृत्यु पर्यंत) तक वे स्वयं इसके संस्थापक अध्यक्ष रहे. उनके निर्देशन में अकादमी का संविधान और सारा ढांचा लोकतांत्रिक पद्धति पर बना है. मुझे प्रसन्नता है कि अकादमी अभी तक उस लोकतांत्रिक ढांचे को बनाए हुए है. इसके क्रियाकलापों में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं है.
50 करोड़ से अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली हिंदी का कोई लेखक-साहित्यकार अभी तक अकादमी का अध्यक्ष नहीं चुना जा सका, इसे आप किस रूप में देखते हैं.
अकादमी के साथ मैं पिछले पांच साल से जुड़ा हूं. पहले हिंदी की समिति के संयोजक के रूप में और फिर किसी पहले हिंदी भाषी लेखक के रूप में इसके निर्विरोध निर्वाचित उपाध्यक्ष के रूप में भी मैंने यहां काम किया. उस दौरान मैंने सभी भारतीय भाषाओं को बराबरी की निगाह से देखा और सबका पक्ष लिया. अब मैं खुद से तो नहीं कह सकता कि सबके साथ मेरा व्यक्तिगत व्यवहार अच्छा था, लेकिन एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि अहंकार हमेशा नुकसानदेह होता है. हिंदी के लेखक-साहित्यकार कई बार इस भ्रम के शिकार होते हैं कि उन्हें सब जानते हैं. सच तो यह है कि देश की दूसरी भाषाओं के लेखक हमारे बड़े से बड़े लेखकों के नाम भी नहीं जानते. वे केवल व्यवहार जानते हैं.
आपके नेतृत्व में अकादमी नया क्या करने जा रही है. अध्यक्ष के रूप में अकादमी और भारतीय साहित्य के सामने मुख्य चुनौतियां क्या नजर आ रही हैं?
साहित्य अकादमी के मुख्य रूप से तीन काम हैं. एक तो पूरे देश में साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन, देश की 24 भाषाओं में महत्वपूर्ण कृतियों के प्रकाशन और उनके परस्पर अनुवाद कराना और इन भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियों को पुरस्कृत करना.इन तीनों क्षेत्रों में अकादमी बहुत अच्छा काम कर रही है. छिटपुट विरोध तो होते हैं मगर उन्हें नगण्य समझना चाहिए. अकादमी के पुरस्कारों की प्रतिष्ठा हमेशा से सर्वोपरि रही है. इसी प्रकार इसके कार्यक्रम भी बहुत प्रतीष्ठित माने जाते हैं. मैं कोशिश करूंगा कि इन सभी क्षेत्रों में अकादमी को कुछ और अधिक सक्रिय करूं तथा अनुवाद के मामले में और तेजी लाऊं.
साहित्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि इसके पाठकों की संख्या घट रही है. हमारी नई पीढ़ी मेडिकल और प्रौद्योगिकी शिक्षा की ओर तेजी से आकर्षित हो रही है. प्रतिभावान बच्चे अपने करियर के लिए चिंतित हैं. बहुत से प्रांतों में साहित्य के पठन-पाठन का सिलसिला कम होते जा रहा है. साहित्य अकादमी इस वातावरण में बहुत कुछ ज्यादा तो नहीं कर सकती लेकिन हमें इस चुनौती को सामने रखकर काम करना है.
मराठी और कोंकणी को लेकर भी क्या कुछ कार्य योजना है आपके पास?
मराठी और कोंकणी, दोनों भाषाएं अकादमी द्वारा स्वीकृत हैं. इनके अलग अलग सलाहकार मंडल हैं जो अपनी अपनी भाषाओं में जरूरत के मुताबिक काम करते रहते हैं. इन दोनों भाषाओं में अन्य शेष भाषाओं के समान ही गतिविधियां संचालित होती रहती हैं. मराठी और कोंकणी ही क्यों अकादमी के लिए सारी भाषाएं समान हैं.
साहित्य अकादमी के पुरस्कार महत्वपूर्ण होने के साथ ही हाल के वर्षों में विवाद का केंद्र भी बनते रहे हैं. कई बार वरिष्ठ लोगों को लगता है कि उन्हें बहुत पहले ही पुरस्कृत किया जाना चाहिए था. अभी चंद्रकांत देवताले जी ने भी कुछ इसी तरह की बातें कही थी. उन्हें 76 साल की उम्र पूरी करने के बाद पुरस्कार मिला!
अकादमी के पुरस्कारों के लिए तीन वर्षों की एक समय सीमा होती है. इस समय सीमा के भीतर प्रकाशित पुस्तकों पर ही विचार किया जाता है. कभी कभी ऐसा होता है कि किसी लेखक की कुछ अच्छी कृतियां इस समय सीमा के अंतर्गत नहीं आ पातीं. दूसरी बात यह है कि कुछ भाषाओं में लेखकों की संख्या अधिक है और पुरस्कार कम. इसलिए कभी कभार विवाद स्वाभााविक हैं. मैं किसी का नाम नहीं लूंगा लेकिन इतना कहूंगा कि कभी-कभी कम उम्र के लेखकों को पहले पुरस्कार मिल जाते हैं और वरिष्ठ-बुजुर्ग लोगों को बहुत बाद में. अकादमी के पुरस्कारों का निर्णय विभिन्न चयन समितियों से होता हुआ अंत में इसके ज्यूरी (निर्णायक) मंडल द्वारा किया जाता है. अत: ऐसी घटनाएं भी स्वाभाविक ही कहे जाएंगी.
यह सच है कि अकादमी के पुरस्कार हर भाषा के लोगों को समान रूप से दिए जाते हैं. हिंदी भाषी लोगों की आबादी और क्षेत्रफल के मद्देनजर भी इसके लिए पुरस्कारों की संख्या बढ़ाने की मांग होती रही है. आप क्या कहेंगे?
यह प्रश्न लगभग सभी लोग पूछते रहते हैं. और यह महत्वपूर्ण भी है लेकिन इसमें साहित्य अकादमी कोई निर्णय नहीं ले सकती क्योंकि इसके लिए सभी भाषाएं एक समान हैं. और सभी के लिए एक एक पुरस्कार ही दिए जाते हैं.
कविता-कहानी को लेकर भी विवाद उठते रहे हैं. कहानी पर कविता को वरीयता दिए जाने के आरोप भी लगते रहे हैं. और फिर कविता-कहानी के परे भी भारतीय साहित्य में इन दिनों बहुत कुछ हो रहा है. इन पर अकादमी की निगाह कम ही जाती है.
अकादमी के पुरस्कारों में किसी खास विधा का ध्यान नहीं रखा जाता. सभी विधाओं की पुस्तकों को एक साथ रखकर निर्णय लिए जाते हैं. अकादमी के पुरस्कार कृतियों की गुणवत्ता के आधार पर तय किए जाते हैं, विधा के आधार पर नहीं.
युवा लेखक-साहित्यकारों के बारे में क्या सोचते हैं?
अकादमी ने सामान्य पुरस्कारों के साथ ही तीन और पुरस्कार-अनुवाद पुरस्कार, बाल साहित्यकार और युवा पुरस्कार देने शुरू किए हैं. युवा पुरस्कार 35 वर्ष से कम उम्र के रचनाकारों-साहित्यकारों को दिया जाता है. ये पुरस्कार सभी भाषाओं में दिए जाते हैं. अकादमी युवा साहित्यकारों और बाल साहित्य लेखकों की अलग संगोष्ठियां भी आयोजित करती है.
आपने साहित्य के पाठकों की संख्या घटने का जिक्र किया, यह भी तो कहा जा सकता है कि साहित्य आम पाठकों से दूर हो रहा है. अकादमी की पुस्तकें भी तो पाठकों की पहुंच से दूर होती होती जा रही हैं.
अकादमी की पुस्तकें गुणवत्ता की दृष्टि से स्तरीय हैं और उनकी तुलना में सस्ती भी हैं. उनकी सालाना बिक्री भी करोड़ों रु. की हो जाती है. लेकिन आपका कहना सही है, हमें देश के सुदूर स्थानों तक अकादमी की पुस्तकें बिक्री के लिए सुलभ कराना चाहिए. इस दिशा में हम कुछ करने की सोच रहे हैं.
24 भाषाओं का संगठन होने के नाते अकादमी देश की समस्त भाषाओं के बीच समन्वय सेतु का काम कर सकती है. हिंदी के लोगों को पता नहीं होता कि मराठी और उड़िया में क्या लिखा-पढ़ा जा रहा है. इसी तरह मराठी और असमिया के पाठक नहीं जान पाते कि देश के अन्य हिस्सों-भाषाओँ में किस तरह का साहित्य लिखा -पढ़ा जा रहा है. क्या यह संभव है कि अकादमी परस्पर अनुवाद की बेहतर व्यवस्था करवा सके और देशवासियों को बता सके कि किस भाषा में क्या लिखा जा रहा है?
अकादमी सभी भाषाओं की पुरस्कृत कृतियों के अनुवाद करवाती है. हमारी कोशिश होगी कि जिन कृतियों को पुरस्कार नहीं भी मिला है, उनमें से महत्वपूर्ण कृतियों का चयन करके उनके अनुवाद की व्यवस्था भी कराई जाए. वैसे, आपको बता दूं कि 24 भाषाओं में अनुवाद का सबसे अधिक काम साहित्य अकादमी ही करवाती है. प्रचार प्रसार पर भी ध्यान केंद्रित कर ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिससे लोग जान सकें कि इतर भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है.
भारतीय साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय पहिचान बनाने के लिए भी क्या कुछ संभव है?
एक बात कहना चाहूंगा कि दुनिया के जो नामचीन लेखक हैं उनके मुकाबले हमारी भारतीय भाषाओं के लेखक कम नहीं हैं. लेकिन हम अपने लेखकों को अंतरार्षट्रीय स्तर पर ठीक से प्रोजेक्ट नहीं कर पाते. यह काम बड़े पैमाने पर अनुवाद से ही संभव है. अनुवाद कुछ हुए भी हैं लेकिन हम उनकी मार्केटिंग और वितरण के मामले में काफी पीछे हैं. हम इस दिशा में कुछ प्रकाशकों और विश्वस्तरीय एजेंसियों को शामिल कर भारतीय साहित्य की श्रेष्ठ समकालीन रचनाओं को दुनिया के सामने लाना चाहते हैं. लार्ड मैकाले ने भारतीय भाषाओं को ‘वर्नाक्युलर’ कहते हुए अपमानजनक टिप्पणी की थाी कि भारत की भाषाओं में लिखे साहित्य की जगह अलमारी के एक शेल्फ के बराबर भी नहीं है. हम बताना चाहते हैं कि हमारा साहित्य इतना ज्यादा और समृद्ध है कि उनका पूरा घर छोटा पड़ जाएगा. यह तो भला हो विलियम जोंस का कि उन्होंने ‘शाकुंतलम’ का अनुवाद किया और तब यूरोप को पता चला कि हजारों वर्ष पहले भारत में ऐसा नाटक भी लिखा गया था. उसके बाद भारत की क्लासिक और कालजयी रचनाओं के अनुवाद हुए और विश्व स्तर पर उन्हें सराहना भी मिली. अब आधुनिक और समकालीन रचनाओं के अनुवाद के माध्यम से दुनिया के सामने लाने का काम भारतीय लेखकों को करना होगा. तभी दुनिया को पता चल सकेगा कि हिंदी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम, बांग्ला एवं अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी महान साहित्य का श्रृजन हो रहा है.
मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में लेखक-साहित्यकार एवं बुद्धिजीवियों की भूमिका आप किस रूप में देखते हैं?
वर्तमान समय भौतिक और उपभोगवादी समय है. इस समय में राजनीति एक प्रबल शक्ति के रूप में समाज पर हावी है. साहित्य का संबंध सत्ता से नहीं बल्कि मूल्यों से है. ऐसे में लेखकों और बुद्धिजीवियों का सबसे बड़ा दायित्व तो यही है कि वे श्रेष्ठ रचनात्मक लेखन करें और बौद्धिक विमर्श के जरिए एक सकारात्मक वातावरण तैयार करें. लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य की शक्तियों आज उतनी प्रभावशाली नहीं रह गई हैं जितनी राजनीति और अर्थ की हैं. इसी के साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रौद्योगिकी आदि भी एक ऐसे माध्यम के रूप में उभरे हैं कि जो साहित्य के प्रभाव को थोड़ा प्रभावित कर रहे हैं. किताब पढ़ने के बजाय हम टी वी देखने बैठ जाते हैं.
सन्नाटा साहित्य में है अथवा समाज में?
कुछ भाषाओं के समाज ऐसे हैं जिनमें साहित्यिक दिलचस्पी पर्याप्त है. जैसे बांग्ला, मराठी, मलयालम, उड़िया इत्यादि. हिंदी प्रदेशों में साहित्यिक दृष्टि से अजीब तरह का सन्नाटा है. इसे तोड़ने की जरूरत है.
इन दिनों आप क्या कुछ लिख-पढ़ रहे हैं?
इन दिनों मैं लगभग 50 वर्षों से लिखी गई अपनी डायरियों पर काम कर रहा हूं. उनमें आत्मकथा के भी तत्व इतने हैं कि एक मुकम्मल आत्मकथा बन सकती है. यह काम दो तीन महीनों में पूरा होने वाला है. कविताएं भी लिखी हैं. हाल में पिछला संकलन आया था जिस पर मुझे के. के. बिड़ला फाउंडेशन का सम्मानित ‘व्यास सम्मान’ मिला था. अब अगला संकलन एक दो साल बाद ही आएगा.
पढ़ने में जो भी महत्वपूर्ण कृतियां हमारे समय में लिखी जा रही हैं, उन सबको पढ़ने-देखने की कोशिश करता हूं. पढ़ना हमारे लिए एक व्यसन की तरह से है. इसलिए उन्हें पढ़े बिना रहा नहीं जाता.
लोकमत के पाठकों के लिए अपनी कोई पसंदीदा कविता देना चाहेंगे?
एक पुरानी कविता ‘कलम’ शायद सामयिक लगे.
कलम
उठाओ इसे
इसमें छिपा है
देवताओं अप्सराओं का गान
अबोध शिशुओं की मुस्कान
यह भर सकती है फूलों में रंग
पानी में आग
और आग में थोड़ी-सी रोशनी
फेंको इसे तौलकर
शिलाखण्ड से फूट पड़ेंगे निर्झर
बह जायेंगे ब्रह्मास्त्र
यह दे सकती है
अनाम को नाम
अरूप को रूप
सन्नाटे को शब्द
मिटा सकती है
जंगल और समुद्र की लिपि
बना सकती है
धरती का व्याकरण
अगर तुम्हारी गफलत से
यह पड़ी रह गयी अंधेरे में
तो धरती पर छा जायेगा अंधकार
दहाड़ने लगेंगे हिंस्र पशु
उठाओ इसे
सिसक रही है यह अंधेरे में असहाय
इसे चाहिए एक हाथ
जिसने वेद लिखा
और लोहा गलाया
इसे चाहिए एक हाथ
जो कभी मत लिखे उपसंहार
उपसंहार के लिए छोड़ जाय
इसे.
(7 अप्रैल 2 0 1 3 को लोकमत (मराठी ) के साप्ताहिक मंथन में प्रकाशित )