महाराष्ट्र में प्रकृति ही नहीं जल कुप्रबंधन की देन भी है सूखा
उम्मीदें आसमान पर टंगी हैं. शायद इस बार अच्छा और कुछ जल्दी मानसून आएगा और महाराष्ट्र के शुष्क क्षेत्र (रेन शैडो एरिया) कहे जाने वाले मराठवाड़ा एवं पश्चिम महाराष्ट्र के 15-16 जिलों में सूखी धरती, प्यासे लोगों और पशुओं की प्यास भी बुझाएगा. इसी तरह की उम्मीद साल भर पहले भी लगाई गयी थी. लेकिन साल दर साल इन इलाकों से रूठे रहने वाले बरसाती बादलों ने निराश ही किया था. मराठवाडा में आमतौर पर साल भर में औसतन 600-700 मिली मीटर (राष्ट्रीय औसत से बहुत कम) पानी बरसता है लेकिन पिछले साल और उससे एक साल पहले भी इस इलाके में इससे आधी मात्रा में ही पानी बरसा था. नतीजतन, तकरीबन 12 हजार गांवों में दो करोड़ लोग भयंकर सूखे और अकाल का सामना कर रहे हैं. जानकार बताते हैं कि सूखा तो इन इलाकों में प्रायः हर साल ही पड़ता है लेकिन इस साल यहां सूखे ने पिछले चार दशकों का रिकार्ड तोड़ दिया है. इस तरह का सूखा इससे पहले यहां 1972 में पड़ा था. इस बार खासतौर से मराठवाडा के बीड़, जालना, उस्मानाबाद, नांदेड़ और लातूर के साथ ही पश्चिम महाराष्ट्र के अहमदनगर, सोलापुर, सातारा और सांगली जिलों में भी पीने के पानी का भारी संकट खड़ा हो गया है. नदी, नाले और कुंए भी सूखे पड़े हैं, भूजलस्तर 1500-1600 फुट नीचे तक पहुंच गया है. सूखे खेतों की जमीन फट गई है. पानी की जरूरत पूरी करने के लिए ग्रामीण इलाकों में किसान 1500 फुट नीचे तक बोरवेल लगाकर पानी खींच रहे हैं जबक वैधानिक रूप से 300 फुट से नीचे बोरवेल नहीं लगाए जा सकते. लोगों ने करोड़ों रु. इन बोरवेल्स पर खर्च किए हैं जबकि पिछले दिनों सरकार ने इन पर प्रतिबंध भी लगा दिया है.इन इलाकों में सूखे और अकाल की आहट पिछले साल सितंबर महीने में ही मिल गई थी लेकिन कागजी वायदों-आश्वासनों और बयानबाजियों के अलावा स्थिति से निबटने के पुख्ता इंतजाम नहीं के बराबर ही किए गए. पानी के लिए हाहाकार मचा है. हालात दिन ब दिन बिगड़ते जा रहे हैं. आसमान से आग के गोले बरस रहे हैं. और अभी तो मई और जून के तपिश भरे दिन काटने हैं. खेत-खलिहान सूखे और खाली पड़े हैं. पेड़-पौधे सूखे और मुरझा गए हैं. लोग पानी और रोजगार की तलाश में महाराष्ट्र के मुंबई-पुणे एवं पड़ोसी राज्यों के शहरी इलाकों की ओर पलायन करने लगे हैं. मवेशी चारा-पानी की तलाश में दर दर भटक-मर रहे हैं. चारा पानी मुहैया करा पाने में असमर्थ किसान अपने मवेशियों को औने-पौने दामों में बेचने को विवश हो रहे हैं या फिर यूं ही छुट्टा छोड़ दे रहे हैं.
महाराष्ट्र में मानसून आमतौर पर जून महीने के तीसरे सप्ताह में ही आता है. आने वाले दिनों में अगर यथोचित इंतजाम नहीं किए गए तो भूख और प्यास के मारे मनुष्य और मवेशियों की मौत का निर्लज्ज नृत्य यहां देखने को मिल सकता है. सरकार ने मवेशियों के लिए जगह-जगह पशु आश्रय स्थल बनाए हैं जहां चारे और पानी का इंतजाम टैंकरों से किया जा रहा है. शहरी इलाकों में सरकारी नलकों से पानी की आपूर्ति कई-कई दिनों के अंतराल पर की जा रही है.प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि गांवों में बचे खुचे लोगों का आधा समय पानी के टैंकरों के इंतजार में ही बीतता है. टैंकर आने की भनक मिलते ही लोग उस दिशा में भागने लग जाते हैं. इन इलाकों में तकरीबन 2500 टैंकरों के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है. इसके चलते इन इलाकों में एक तरह का टैंकर माफिया भी सक्रिय हो गया है. इसमें नेता, नौकरशाह और ठेकेदार शामिल हैं. जालना में सरकार ने टैंकरों से पानी की आपूर्ति के लिए 40 करोड़ रु. जारी किए हैं लेकिन सरकारी टैंकरों से निःशुल्क पानी की आपूर्ति वहां नहीं के बराबर दिख रही है. वहीं पांच रु. में एक घड़ा तथा 300 से 400 रु. में 500 लीटर का एक टैंकर मिल जा रहा है. इसी तरह से उस्मानाबाद में सरकारी नलके से दो घंटे के लिए पानी की आपूर्ति 21 दिनों के अंतराल पर हो पा रही है. पानी 30 किमी दूरी से टैंकरों से लाया और औने पौने दामों पर बेचा जा रहा है. मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने कहा है कि आवश्यकता पड़ने पर रेल गाड़ियों से भी पानी पहुंचाया जाएगा. हालांकि पानी आएगा कहां से इसके बारे में कोई भी आश्वस्त नहीं है क्योंकि आस पास के तमाम जलाशय सूख से गए हैं. उनमें बहुत कम पानी बचा है.
सवाल एक ही है कि जब महाराष्ट्र के एक तिहाई इलाकों में हर साल पानी अपेक्षा से कम बरसता है, लोग सूखे और अकाल का सामना करने के लिए साल दर साल अभिशप्त रहते हैं तो फिर हमारी सरकारों ने इस स्थिति से निबटने के स्थाई और ठोस उपाय क्यों नहीं किये ? किये थे. 1999 से लेकर 2009 तक राज्य सरकार ने बड़े बांधों एवं बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के नाम पर 70 हजार करोड़ रु. से अधिक रकम खर्च की. इसके अलावा इन्हीं परियोजनाओं के नाम पर सरकार के ऊपर निजी ठेकेदारों के एक लाख करोड़ रु. का बकाया भी चढ़ गया. लेकिन नतीजे के तौर पर राज्य में सिंचाई क्षमताओं में महज .01 प्रतिशत का ही इजाफा हो सका. जाहिर सी बात है कि इतनी बड़ी, एक लाख 70 हजार करोड़ रु. की रकम कागजों में ही खर्च होकर हमारे नेताओं-मंत्रियों, नौकरशाहों और ठेकदारों की एन केन प्रकारेण धन कमाने की प्यास बुझाने में ही खर्च हो गई. इस सिंचाई घोटाले के मद्देनजर राज्य के तत्कालीन सिंचाई मंत्री अजित पवार को सरकार से त्यागपत्र भी देना पड़ा था लेकिन बलिहारी गठबंधन राजनीति की, कुछ ही समय बाद वह ससम्मान सरकार में वापस आ गए. इन्हीं अजित पवार साहब ने कुछ दिनों पहले पानी की मांग कर रहे लोगों के बीच कहा था, "कि जलाशयों में पानी है ही नहीं तो क्या मैं पेशाब करके जलाशयों को भरूं." बाद में भारी जन विरोध और हर तरफ थू थू होने पर उन्होंने इसके लिए दिखावे के तौर पर सही, प्रायश्चित भी किया.
सच तो यह है कि महाराष्ट्र के इन इलाकों में सूखे और अकाल की स्थिति केवल प्राकृतिक कारणों से ही नहीं बनी है. मुख्यमंत्री चह्वाण की लाचारगी समझाी जा सकती है कि पानी का उत्पादन नहीं किया जा सकता. लेकिन जितना पानी उपलब्ध है उसका कुशल प्रबंधन तो किया ही जा सकता है. पर्यावरणविद बताते हैं कि मराठवाडा क्षेत्र में 1972 के मुकाबले पिछले साल पानी कम नहीं, कुछ ज्यादा ही बरसा था. लेकिन उसका इस्तेमाल लोगों की प्यास बुझाने का इंतजाम करने से अधिक, अगल-बगल के इलाकों में चल रहे शक्कर कारखानों, औद्योगिक इकाइयों, पन बिजली परियोजनाओं के साथ ही ज्यादा पानी सोखने वाले गन्ने के खेतों, अंगूर और अनार के बागानों को सींचने के लिए किया गया. महाराष्ट्र देश में शक्कर और अंगूर की शराब का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है. पर्यावरणविद वंदना शिवा आंकड़ों की जबानी बताती हैं कि 1972 में जहां राज्य में कुल एक लाख 67 हजार हेक्टेयर रकबे में गन्ने की खेती हुई थी, वहीं 2011-12 में गन्ने की खेती का रकबा दस गुना बढ़कर दस लाख 22 हजार हेक्टेयर हो गया. जाहिर सी बात है कि एक तरफ तो अनावृष्टि के कारण इन इलाकों में पानी की कमी होती गई, दूसरी तरफ, पानी ज्यादा सोखने वाली फसलों का रकबा बढ़ता गया. यह बात और है कि सरकारी नीति के अनुसार सिंचित भूमि के पांच फीसदी से अधिक रकबे में गन्ने की खेती नहीं हो सकती लेकिन सजग नागरिक मंच नामक स्वयंसेवी संगठन द्वारा सूचना अधिकार कानून के तहत जुटाई गई सूचना के मुताबिक अकेले पुणे जिले में कुल सिंचित भूमि के 40 फीसदी रकबे में गन्ने की खेती की जा रही है. सच तो यह है कि राज्य में कुल चीनी उत्पादन का 65 फीसदी अकेले इन सूखा ग्रस्त इलाकों से ही होता है. हालत यह है कि संकट के इन दिनों में भी टैंकरों से एवं जलाशयों से भी बचे खुचे पानी की चोरी छिपे आपूर्ति समृद्ध एवं प्रभावशाली किसानों के खेतों और उद्योगों के लिए भी की जा रही है. यह जानना मजेदार होगा कि राज्य सरकार में दर्जन भर मंत्री ऐसे हैं जिनके अपने शक्कर कारखाने हैं या फिर शक्कर कारखानों में उनकी बड़ी हिस्सेदारी है.
इन इलाकों में और खासतौर से पश्चिमी महाराष्ट्र के शहरी इलाकों में औद्योगीकरण तेजी से बढ़ा है. हरे-भरे जंगलों और खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल और उद्योग खड़े होते गए. नतीजतन बरसात के पानी के भूजल के रूप में संचय की मात्रा भी घटती गई. सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य में 600-700 मिली मीटर सालाना बरसात का महज 60-70 मिली मीटर पानी ही भूजल के रूप में संरक्षित हो पा रहा है. बाकी पानी या तो सूर्य की तपिश के कारण वाष्पीकृत हो जाता है या फिर पन बिजली परियोजनाओं के जरिए समुद्र में चला जाता है. एक प्रस्ताव कुछ समय के लिए पन बिजली परियोजनाओं को जलापूर्ति नहीं किए जाने का भी आया था लेकिन सरकार ने यह कह कर उसे खारिज कर दिया कि राज्य को बिजली की जरूरत भी उसी शिद्दत से है जितनी पानी की. यही बात उद्योगपति भी कहते हैं. मसलन सूखाग्रस्त जालना में जितने पानी की जरूरत पूरे शहर को होती है, उतना पानी अकेले वहां चल रहे इस्पात कारखाने पी जाते हैं लेकिन 'इंडस्ट्रियल एंटरप्रेन्योर एसोसिएशन आफ जालना' के अध्यक्ष किशोर अग्रवाल कहते हैं कि पानी के अभाव में इन इस्पात कारखानों के बंद हो जाने के कारण उनमें लगे 50 हजार से अधिक लोग बेरोजगार हो जाएंगे. वे लोग 50 किमी दूर से दस गुना दाम देकर टैंकरों में पानी मंगा रहे हैं ताकि कारखाने चलते रहें और उनमें काम करने वाले बेरोजगार ना हो सकें!
महाराष्ट्र के इन सूखाग्रस्त इलाकों में राहत के नाम पर राजनीति भी कम नहीं हो रही है. कांग्रेस, उसकी सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, भाजपा, शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के तमाम बड़े नेता सूखाग्रस्त इलाकों में दौरे कर शुष्क आश्वासनों एवं लच्छेदार भाषणों के जरिए प्यासी जनता का समर्थन जुटाने में जुटे हैं. केंद्र और राज्य सरकार से पानी की आपूर्ति और राहत के नाम पर करोड़ों रु. के पैकेज भी आ रहे हैं. राज्य सरकार ने केंद्र से 2500 करोड़ रु. का पैकेज मांगा था केंद्र ने 780 करोड़ रु. जारी किये थे. पिछले 13 मार्च को भी केंद्र सरकार ने 1200 करोड़ रु. का पैकेज जारी किया. राष्ट्रीय आपदा राहत फंड से भी 807 करोड़ रु. जारी किए गए हैं. सच है कि वहां पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे हैं. लेकिन यह सच कुछ ज्यादा कड़वा लग सकता है कि जिन लोगों के लिए ये पैसे पानी की तरह बहाए जा रहे हैं उन मनुष्य और मवेशियों की प्यास नहीं बुझ पा रही है. उनके हलक सूख रहे हैं. समय रहते उनकी प्यास नहीं बुझाई गई तो उन इलाकों में कानून व्यवस्था की गंभीर समस्या पैदा हो सकती है जो इस बात का संकेत भी होगी कि जल संरक्षण और जल प्रबंधन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा.
(साप्ताहिक उदय इंडिया में प्रकाशित)
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