Sunday, 30 September 2012

जलती रहे लोकतंत्र की मशाल

कश्मीर घाटी में एक बार फिर लश्करे तैयबा एवं कुछ अन्य अलगाववादी आतंकवादी संगठनों के पोस्टर दिखने लगे हैं. उर्दू में हस्तलिखित इन पोस्टरों में सरपंचों, ग्राम प्रधानों और पंचायत सदस्यों से इस्तीफा देने या फिर अपने कुछ सहयोगी पंचों का अंजाम भुगतने की चेतावनी दी गई है. हाल के दिनों में आतंकवादियों के द्वारा की गई सात-आठ पंचों, सरपंचों की हत्या के बाद पंचायतों के लिए चुने गए बहुत सारे जन प्रतिनिधियों ने त्यागपत्र देना शुरू भी कर दिया है. राज्य में उमर अब्दुल्ला के नेतृत्ववाली नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार की उपेक्षा और सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के अभाव में एक-डेढ. साल पहले चुने गए तकरीबन 34 हजार पंचायत प्रतिनिधियों, पंचों और सरपंचों के बीच भय और दहशत का माहौल है. 
जम्मू-कश्मीर में पंचायतों के चुनाव तकरीबन तीन दशक बाद हुए थे. तब भी अलगाववादी दहशतगदरें के साथ ही हुर्रियत कान्फ्रेंस के अलगाववादी कट्टरपंथी तत्वों ने भी इन चुनावों के बहिष्कार अथवा अंजाम भुगतने की चेतावनी दी थी. आतंकवादी सबसे अधिक लोकतंत्र से ही डरते हैं. वे कतई नहीं चाहते कि चुनाव प्रक्रिया और खासतौर से पंचायत स्तर के चुनावों में उम्मीदवार से लेकर मतदाता के रूप में ग्रामीणों की बड.ी भागीदारी सुनिश्‍चित हो. लेकिन कारण चाहे जम्मू-कश्मीर में हाल के वर्षों में सुधर रहे हालात रहे हों अथवा तीन दशकों से दहशतगर्दी झेल रहे घाटी के लोगों में स्थानीय विकास की ललक, आतंकवादियों की धमकियों- चेतावनियों को धता बताकर लोग बडे. पैमाने पर पंचायतों के चुनाव में हिस्सा लेने के लिए सामने आए. 34000 से अधिक पंचायत प्रतिनिधि (सरपंच, उप सरपंच, प्रधान, पंच एवं पंचायत समिति के सदस्यों का चुनकर आना कश्मीर घाटी में लोकतंत्र की सबसे बड.ी जीत थी और पृथकतावादी दहशतगदरें के मुंह पर बड.ा तमाचा जो अब तक घाटी में लोकतंत्र के अस्तित्व को ही नकारने में लगे थे. हालांकि लोकसभा और विधानसभा के भी पिछले कई चुनावों में भी स्थानीय लोगों की क्रमश: बढ.ती गई भागीदारी ने दहशतगर्दी के खिलाफ जनमानस के रुझान और लोकतंत्र में उनकी आस्था को व्यक्त किया था, पंचायतों के चुनाव को तो पृथकतावादी दहशतगर्द कतई पचा नहीं पा रहे थे. 
यह चुनाव केंद्र और राज्य सरकार के लिए एक सुअवसर भी था. पंचायतों को अधिकार संपन्न बनाने के साथ ही पंचायतों के चुने हुए जन प्रतिनिधियों के जरिए स्थानीय विकास की गति को तेज कर दहशतगदरें के प्रति मोहभंग, उनके डर से मुक्ति और लोकतंत्र के प्रति स्थानीय जनमानस में बढ.ी भूख को स्थायी बना सकते थे. लेकिन कारण शायद यह रहा हो कि चुने गए पंचायत प्रतिनिधियों में सत्तारूढ. नेशनल कान्फ्रेंस का सर्मथन सबसे कम रहा हो अथवा कुछ और पंचायतों और उनके निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को अधिकार संपन्न बनाने, उन्हें स्थानीय विकास का जरिया बनाने के बजाय राज्य सरकार ने उनकी उपेक्षा सी शुरू कर दी. बताते हैं कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों में सबसे अधिक पीडीपी (पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट) और फिर कांग्रेस के लोग हैं. नेशनल कान्फ्रेंस तीरे नंबर पर है. कांग्रेस के बार-बार के दबाव के बावजूद उमर अब्दुल्ला सरकार पंचायतों को अधिकार संपन्न बनाने, जम्मू-कश्मीर पंचायत अधिनियम 1992 में पंचायतीराज से संबंधित संविधान के 73वें-74वें संशोधन को लागू करने और उस पर अमल सुनिश्‍चित करने के लिए राजी नहीं हुई. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का तर्क है कि इससे राज्य सरकार की स्थानीय स्वायत्तता प्रभावित होगी. दहशतगर्दी की आड. में सरकारी परियोजनाओं और उनके नाम पर आने वाली रकम को हजम कर जाने के आदी स्थानीय सांसदों, विधायकों और नौकरशाहों को भी पंचायतों के रूप में एक समानांतर तंत्र खड.ा होते दिखने लगा. शायद यह भी एक कारण है कि ब्लाक प्रमुखों, जिला परिषदों और नगर निकायों के चुनाव नहीं कराए गए. इससे प्रतिकूल परिस्थितियों में चुनकर आए पंचायत प्रतिनिधियों के मन में निराशा और हताशा फैलने लगी कि जब उनके पास कोई अधिकार, फंड और कोई काम ही नहीं हैं तो वे चुने ही क्यों गए. आतंकवादी तो जैसे इस तरह की स्थिति की ताक में ही थे. उन्होंने अपनी उपेक्षा और अधिकारविहीनता से निराश-हताश पंचों-सरपंचों को त्यागपत्र देने अथवा जान से हाथ धोने की धमकियां देनी शुरू की. 
यह सही है कि इतने बडे. पैम

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